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सनातन धर्म के सबसे बड़े स्तंभ का अंत : स्वरूपानंद जी ने महज 9 साल में छोड़ दिया था घर, देश को आजाद कराने में भी निभाई अहम भूमिका

सनातन धर्म के सबसे बड़े स्तंभ का अंत : स्वरूपानंद जी ने महज 9 साल में छोड़ दिया था घर, देश को आजाद कराने में भी निभाई अहम भूमिका

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Shankracharya Swami Swarupanand: द्वारका शारदा पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी महाराज सनातन धर्म के प्रमुख आधार स्तंभ थे। उन्होंने देश को आजाद करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वह स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ-साथ रामसेतु की रक्षा के लिए अभियान चलाया। उन्होंने ही गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करवाया। रामजन्म भूमि के लिए उन्होंने अंत तक बिना रुके लंबा संघर्ष किया। वह गौरक्षा आन्दोलन के प्रथम सत्याग्रही रहे। वह रामराज्य परिषद् के पहले अध्यक्ष थे। सनातन समाज के योगदान में उन्होंने अपना पूरा जीवन खफा दिया। भले ही वह ब्रह्मलीन हो गए हों, लेकिन उनकी कृतियां हमेशा- हमेशा के लिए जीवित रहेंगी। स्वरूपानंद जी ने ताउम्र पाखंडवाद का विरोध किया। सनातन संस्कृति और सनातन धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने अनेकों कार्य किए। 

करपात्री महाराज से लिया था शास्त्रों का ज्ञान 

स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म 2 सितंबर 1924 को मध्य प्रदेश के सिवनी जिला अंतर्गत ग्राम दिघोरी में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री धनपति उपाध्याय और माता का गिरिजा देवी था। स्वरूपानंद सरस्वती जी के माता-पिता ने उनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा। 9 वर्ष की आयु में ही उन्होंने घर छोड़ कर धर्म यात्राएं शुरू कर दी थीं। इस दौरान वह काशी पहुंचे और यहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज की देखरेख में वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा ली। यह वह समय था, जब गुलाम भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लड़ाई जोर शोर से चल रही थी।

स्वतंत्रता आंदोलन में जेल भी गये

भारत को आजाद कराने के लिए साल 1942 में जब अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा लगा तो स्वरूपानंद सरस्वती जी भी स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में कूद पड़े। इसी दौरान वह महज 19 वर्ष की आयु में वह क्रांतिकारी साधु के रूप में प्रसिद्ध हुए। स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के दौरान उन्हें वाराणसी की जेल में 9 दिन व मध्यप्रदेश की जेल में छह माह कारावास की सजा काटनी पड़ी। वह करपात्री महाराज के राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी रहे। 1950 में वे दंडी संन्यासी बनाए गए। उन्हें वर्ष 1981 में शंकराचार्य की उपाधि मिली। उन्होंने 1950 में शारदा पीठ शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दंड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हो गए।

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