New vision of social thinking, in the eyes of the court there is no difference between an unmarried and a widowed daughter, Breaking news, National top news, national news, national update, national news, new Delhi top news, Kolkata news : भारत की न्यायपालिका ने बिल्कुल नई सामाजिक-पारिवारिक दृष्टि का परिचय दिया है। कलकत्ता हाई कोर्ट ने अपने एक फैसले में स्पष्ट किया है कि विधवा बेटी को भी पिता या माता के वारिस के रूप में पेंशन पाने का अधिकार है। अविवाहिता का हवाला देते हुए विधवा बेटी को इससे वंचित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि बुनियादी स्तर पर दोनों में कोई फर्क नहीं है। स्वतंत्रता सैनिक सम्मान पेंशन के एक मामले में हाई कोर्ट के जस्टिस सब्यसाची भट्टाचार्या ने फैसला सुनाते हुए यह टिप्पणी की है।
स्वतंत्रता सेनानी के रूप में मां को मिलती थी पेंशन
एडवोकेट बिपाशा जायसवाल ने यह जानकारी देते हुए बताया कि रासमनी साहू ने हाई कोर्ट में यह रिट दायर की थी। उसके पिता जगन्नाथ दिंदा के निधन के बाद उसकी मां दुर्गारानी दिंदा को स्वतंत्रता सेनानी के रूप में पेंशन मिलती थी। मां के निधन के बाद उसने पेंशन के लिए आवेदन किया तो उसे इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि वह विधवा है। जस्टिस भट्टाचार्या ने विवाहिता और विधवा के शाब्दिक अर्थ और जमीनी हकीकत का विश्लेषण किया है। एडवोकेट जायसवाल ने बताया कि जस्टिस भट्टाचार्या के विश्लेषण के अनुसार, कोई भी लड़की विधवा होने के बाद अविवाहिता ही बन जाती है। केंद्र सरकार की दलील थी कि आश्रितों की सूची में पत्नी और अविवाहिता बेटियां ही आती हैं बशर्ते कि उनका नाम इसके लिए दिए गए आवेदन में दर्ज हो। यहां रासमनि का नाम इस लिए दर्ज नहीं था क्योंकि वह उस समय विवाहिता थी। जस्टिस ने कहा है कि पति के निधन के बाद पीटिशनर भी अविवाहिता की श्रेणी में आ गई। यहां यह दलील दी जा सकती है कि क्या विधवा को उसके मृत पति से गुजारा भत्ता मिल रहा है। इस योजना में कहा गया है कि आवेदक को मृतक का आश्रित होना पड़ेगा। यहां पीटिशनर के पास आय का अन्य कोई स्त्रोत नहीं है, इसलिए उसे पेंशन पाने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।