राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख मोहन भागवत जब कुछ बोलेंगे तो उसका मायना और उसका असर कितना व्यापक हो सकता है, इसे सभी लोग शायद समझते भी नहीं, मगर थोड़ा ठहर कर अपनी बौद्धिक ऊर्जा लगाइए, तो सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा। देश में मंदिर-मस्जिद को लेकर कब नफरत की आग किस कोने से शुरू होकर किस कोने तक जाएगी, इसका अंदाजा किसी के पास नहीं। इसमें कुछ न कुछ रोज ऐसी हवा उड़ाई जाती है कि देश की और बातें मीडिया और सोशल मीडिया में हो ही नहीं। यह सब कुछ मोहन भागवत बारीकी से और बहुत व्यापकता से समझते हैं और उसके मद्देनजर रह-रह कर अपनी जुबान खोला करते हैं। हालांकि इस जुबान की जड़ वही होती है, जो हो सकती है। आग्नेय हलचलों के बीच 2 जून को ज्ञानवापी मस्जिद-काशी विश्वनाथ मंदिर विवाद को लेकर उन्होंने अपनी जुबान खोली और कह गए ऐसी बड़ी बात, जिसे बड़े-बड़े पंडितों के लिए समझना भी आसान नहीं है। कुछ हिन्दू संगठनों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि हर दूसरे दिन मस्जिद-मंदिर विवादों को उठाना और विवाद पैदा करना अनुचित है। इन मुद्दों के सौहार्दपूर्ण समाधान की जरूरत है। दोनों पक्षों को इस मुद्दे को सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाने के लिए एक साथ आना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो अदालत के फैसले को स्वीकार करना चाहिए। ऐसी मीठी मधुरी वाणी से भला कौन इनकार कर सकता है, लेकिन इसके पीछे की जड़ तो कुछ और संकेत करती है। आगे के बयान में स्पष्ट हो जाएगा।
कुछ हिंदू संगठनों की निंदा की
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, नागपुर में आरएसएस कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण कार्यक्रम के समापन समारोह को संबोधित करते हुए मोहन भागवत ने कुछ हिंदू संगठनों की निंदा की। कहा कि हर दूसरे दिन मस्जिद-मंदिर विवादों पर विद्वेष फैलाना और विवाद पैदा करना अनुचित है। इससे बेहतर यह है कि मुस्लिम भाइयों के साथ बैठकर विवादों को सुलझाया जाए। अब यह समझने में किसी मशक्कत की क्या जरूरत कि देश का कोई भी हिंदू संगठन क्या RSS को इग्नोर कर कुछ करने की हिम्मत रखता है।
संघ नहीं करेगा और कोई मंदिर आंदोलन
काशी-ज्ञानवापी मस्जिद का जिक्र किए बगैर उन्होंने मस्जिद में हाल में हुए सर्वेक्षण की ओर इशारा करते हुए कहा कि हिंदू हो या मुसलमान इस मुद्दे पर ऐतिहासिक हकीकत और तथ्यों को स्वीकार करें। मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने और शाही ईदगाह के अंदर कृष्ण की मूर्ति स्थापित करने की भी मांग की गई। कुछ उग्र हिंदू संगठनों ने भी अन्य मस्जिदों के स्थान पर मंदिर बनाने की मांग की क्योंकि उन्हें लगा कि ये विवादित हैं। उन्होंने आरएसएस को इन आंदोलनों से जोड़ने की कोशिश की कि आरएसएस राम मंदिर मुद्दे में शामिल है, जबकि आरएसएस इस तरह के किसी भी आंदोलन में शामिल नहीं होगा। समझने की बात यह है कि बिना आंदोलन में शामिल हुए आंदोलन को अदालती रास्ते से हवा देने की रणनीति क्या कम महत्वपूर्ण हो सकती है।
‘भारत के मुस्लिमों के पूर्वज हिंदू’
भागवत ने यह दोहराया कि प्राचीन भारत में मुसलमानों के पूर्वज हिंदू थे और एक अलग धार्मिक पद्धति का पालन करते थे। हिंदुओं ने अखंड भारत के विभाजन को स्वीकार कर लिया था और एक मुस्लिम देश पाकिस्तान के लिए मार्ग प्रशस्त किया था। मोहन भागवत ने कहा कि इसका मतलब है कि बड़ी संख्या में मुसलमान जो भारत में रह गए और पाकिस्तान को नहीं चुना, वे हमारे भाई हैं। भागवत जी के ऐसे विमर्श के भीतर सवाल यह उठाया जाना चाहिए कि क्या जिन्होंने पाकिस्तान को नहीं चुना वे हिंदू हैं और जो पाकिस्तान चले गए वे विशुद्ध मुसलमान हैं। फिर जो हिंदू पाकिस्तान चले गए, वे क्या हैं, यह भी तो स्पष्ट किया जाना चाहिए। इसके साथ ही आज के भारत के मुसलमानों को यह बताने का क्या मतलब कि उनके पूर्वज हिंदू थे, मतलब वे अपनी धार्मिक आस्था मिटाकर हिंदू बनें।