राजीव थेपड़ा
Being intolerant is also being an enemy of society : हफ्ते भर में अपने पड़ोस की दो घटनाओं ने बड़ा चिन्तित कर दिया है और दोनों घटनाएं हमारी घटती हुई सहनशक्ति की परिचायक हैं !! दोनों घटनाएं आपसी मारपीट की हैं और समझ नहीं आता के हम इस तरह के क्रोध से भर कर अपने आप को कहां ले जा रहे हैं और हमारे इस क्रमश: उग्र होते जाते स्वभाव का अंतिम परिणाम क्या होगा, सच तो यह है कि ऐसा क्रोध हमने यदि व्यवस्था की अव्यवस्था पर व्यक्त किया होता, तो हमारा देश आज एक अनुशासित और मजबूत देश होता। मगर, हमने अपनी व्यक्तिगत ताकत का उपयोग महज निजी भोग और अहंकार के लिए किया है। इसके कारण एक ही देश में दो-दो विपरीत स्वभाव और सभ्यता वाले देश पैदा हो गये हैं, जिसमें एक विपन्न है, कंगाल है और आत्महीन है, तो दूसरी और अपार संसाधन युक्त बलशाली और वैभवशाली और अपने बल तथा धन का वीभत्स एवं नग्न प्रदर्शन करता एक दूसरी ही दुनिया का भारत !!
टिट फॉर टैट, ईंट का जवाब पत्थर, खून का बदला खून, इस तरह के तर्कों का जब हम उपयोग करते हैं, तब हम यह कतई नहीं समझते कि हमारी ये भावनाएं निजी ना होकर सामूहिक दबाव से संचालित होती हैं। अधिकांश मामलों में विवादों के आपसी स्तर पर ही सुलझ जाने की सम्भावना होती है; बस ! ज़रा-सी समझदारी भर की आवश्यकता होती है। मगर, इसी बीच दोनों विवादी पक्षों के बीच कोई तीसरा अतिशय समझदार व्यक्ति या समूह आ जाता है, जो सम्बन्धित दोनों पक्षों के अहंकार को आसमान पर पहुंचा देता है और विवादों को हल करने वाली शर्तों को असम्भवप्राय बना देता है और सारे झगड़ों को अपने क्लच में ले लेता है। मगर, क्लच का इस्तेमाल कभी नहीं करता, ना करने देता है, बल्कि सिर्फ एक्सीलेटर दबवाता है और इस तरह किसी भी बात का निदान असम्भव कर देता है……….आपका क्या ख्याल है दोस्तों………!!!