Dharma adhyatma : क्या आपको पता है, बसंत पंचमी के मौके पर दिल्ली स्थित हज़रत निज़ामुद्दीन दरगाह को पीले रंग से सजाया जाता है और लोग दूर-दूर से यहां फूलों की होली खेलने आते हैं। दरगाह में कव्वाली का आयोजन होता है। भक्त दरगाह पर सरसों के फूल चढ़ाते हैं। इस तरह बसंत पंचमी का त्योहार गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक बन गया। आखिर इस दरगाह पर बसंत पंचमी मनाने का चलन कब और कैसे शुरू हुआ, आज हम इन्हीं विषयों पर चर्चा करेंगे।
यह भी पढ़े : सावन में शिवलिंग पर अर्पित करें ये छह चीजें, होगी हर इच्छा पूरी
यह है कहानी
तकीउद्दीन नूह की मौत से टूट गए थे निज़ामुद्दीन औलिया
सूफी संत हजरत ख्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया के वंशज पीरज़ादा अल्तमश निज़ामी के अनुसार निज़ामुद्दीन औलिया चिश्तिया सिलसिले के संत थे, जो भारत में चार प्रमुख सूफी संप्रदायों में से एक था। इस सिलसिले को ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने शुरू किया था। निज़ामुद्दीन औलिया ने कभी शादी नहीं की, इसलिए उन्हें कोई संतान नहीं थी। इसलिए वह अपनी बहन के बेटे ख्वाजा तकीउद्दीन नूह से अपने बच्चों जैसा प्रेम करते थे, जिसकी बीमारी से मौत हो गई थी। इस घटना ने औलिया को काफी दुख पहुंचाया। आप कह सकते हैं इस घटना के बाद औलिया के चेहरे से हंसी खुशी गायब हो गई। फिर क्या हुआ…
पीले कपड़े में अमीर खुसरो को खुश देख मुस्कुरा उठे निज़ामुद्दीन औलिया
निज़ामुद्दीन औलिया के भतीजे अमीर खुसरो, जो प्रसिद्ध कवि और संगीतकार थे, ने उनके दुख को बेहद करीब से देखा था। एक दिन खुसरो की नजर हिंदू महिलाओं के एक समूह पर पड़ी, जो बसंत पंचमी का जश्न मना रही थी। पीले कपड़े में महिलाएं सरसों के फूलों की टोकरियां हाथ में ली हुई थी। खुसरो ने महिलाओं से ऐसा करने की वजह पूछी तो महिलाओं ने उन्हें जवाब दिया कि वे अपने भगवान को प्रसाद चढ़ाने के लिए कालका जी मंदिर जा रहे हैं। महिलाओं को खुश देखकर अमीर खुसरो ने भी पीले कपड़े पहने और फूलों की एक टोकरी ली और सीधा निज़ामुद्दीन औलिया के पास चले गए। निज़ामुद्दीन औलिया अपने भतीजे खुसरो को खुश देखकर मुस्कुरा दिए। वह काफी समय बाद मुस्कुराये थे, इसलिए इस दिन एक नयी परंपरा का जन्म हुआ। तब से लेकर अब तक हज़रत निज़ामुद्दीन दरगाह पर बसंत पंचमी का त्योहार बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।