dharm, religious, Dharma-Karma, Spirituality, Astrology, jyotish Shastra, dharmik totke, dharm adhyatm, Shiva, Shambhu and Shankar; That means peace, well-being and happiness… : भगवान शिव ही सबसे बड़े नीतिज्ञ हैं, क्योंकि वही समस्त विद्याओं, वेदादि शास्त्रों, आगमों तथा कलाओं के मूल स्रोत हैं। इसलिए उन्हें विशुद्ध विज्ञानमय, विद्यापति तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर कहा गया है। भगवान शिव ही समस्त प्राणियों के अंतिम विश्रामस्थान भी हैं। उनकी संहारिका शक्ति प्राणियों के कल्याण के लिए प्रस्फुटित होती है। जब भी जिसके द्वारा धर्म का विरोध और नीति मार्ग का उल्लंघन होता है, तब कल्याणकारी शिव उसे सन्मार्ग प्रदान करते हैं।
भगवान शिव और उनका नाम समस्त मंगलों का मूल एवं अमंगलों का उन्मूलक है। शिव, शम्भु और शंकर ; ये तीन नाम उनके मुख्य हैं और तीनों का अर्थ है- परम कल्याण की जन्मभूमि, सम्पूर्ण रूप से कल्याणमय, मंगलमय और परम शांतिमय।
भगवान शिव सबके पिता और भगवती पार्वती जगजननी तथा जगदम्बा कहलाती हैं। अपनी संतान पर उनकी असीम करुणा और कृपा है। उनका नाम ही आशुतोष है। दानी और उदार ऐसे हैं कि नाम ही पड़ गया औढ़रदानी। उनका भोलापन भक्तों को बहुत ही भाता है। अकारण अनुग्रह करना, अपनी संतान से प्रेम करना भोलेबाबा का स्वभाव है। उनके समान कल्याणकारी व प्रजा रक्षक और कौन हो सकता है।
समुद्र से कालकूट विष निकला, जिसकी ज्वालाओं से तीनों लोकों में सर्वत्र हाहाकार मच गया। सभी प्राणी काल के जाल में जाने लगे। किसी में ऐसा सामर्थ्य नहीं था कि वह कालकूट विष का शमन कर सके। प्रजा की रक्षा का दायित्व प्रजापतिगणों का था, लैकिन, वे भी जब असमर्थ हो गये, तो सभी शिव जी की शरण में गये और अपना दुख निवेदन किया।
उस समय भगवान शंकर ने देवी पार्वती से जो बात कही, उससे बड़ी कल्याणकारी, शिक्षाप्रद, अनुकरणीय नीति और क्या हो सकती है। विष से आर्त और पीड़ित जीवों को देख कर भगवान बोले… ‘देवी ! ये बेचारे प्राणी बड़े ही व्याकुल हैं। ये प्राण बचाने की इच्छा से मेरे पास आये हैं। मेरा कर्तव्य है कि मैं इन्हें अभय करूं, क्योंकि जो समर्थ हैं, उनके सामर्थ्य का उद्देश्य ही यह है कि वे दोनों का पालन करें।
साधुजन, नीतिमान जन अपने क्षणभंगुर जीवन की बलि देकर भी प्राणियों की रक्षा करते हैं। कल्याणी ! जो पुरुष प्राणियों पर कृपा करता है, उससे सर्वात्मा श्री हरि संतुष्ट होते हैं और जिस पर वह श्री हरि संतुष्ट हो जाते हैं, उससे मैं तथा समस्त चराचर जगत भी संतुष्ट हो जाता है।’
भगवान शिव स्वयं नीतिस्वरूप हैं। अपनी चर्चा से उन्होंने जीव को थोड़ा भी परिग्रह न करने, ऐश्वर्य एवं वैभव से विरक्त रहने, संतोष, संयम, साधुता, सादगी, सच्चाई परहित-चिंतन, अपने कर्तव्य के पालन तथा सतत् नाम जप-परायण रहने का पाठ पढ़ाया है। ये सभी उनकी आदर्श अनुपालनीय नीतियां हैं।
अपने प्राणों की बलि देकर भी जीवों की रक्षा करना, सदा उनके हित चिंतन में संलग्न रहना- इससे बड़ी नीति और क्या हो सकती है। कृपालु शिव ने यह सब कर दिखाया। ‘मेरी प्रजाओं का हित हो, इसलिए मैं इस विष को पी जाता हूं।’ ऐसा कह वह हलाहल पी गये और नीलकंठ कहलाये। तीनों लोकों की रक्षा हो गयी।
भगवान शिव के 9 प्रतीक : प्रभाव, महत्त्व और रहस्य
शिव के प्रतीक अपने आप में कई रहस्यों को समेटे हुए हैं, जिन्हें सभी भक्तजनों को जानना चाहिए। शिव के स्वरूप का विशिष्ट प्रभाव अपनी अलग-अलग प्रकृति को दर्शाता है। पौराणिक मान्यता से देखें, तो हर आभूषण का विशेष प्रभाव तथा महत्त्व बताया गया है।
पैरों में कड़ा : यह अपने स्थिर तथा एकाग्रता सहित सुनियोजित चरणबद्ध स्थिति को दर्शाता है। योगीजन भी शिव के समान ही एक पैर में कड़ा धारण करते हैं। अघोरी स्वरूप में भी यह देखने को मिलता है।
मृगछाला : इस पर बैठ कर साधना का प्रभाव बढ़ता है। मन की अस्थिरता दूर होती है। तपस्वी और साधना करने वाले साधक आज भी मृगासन या मृगछाला के आसन को ही अपनी साधना के लिए श्रेष्ठ मानते हैं।
रुद्राक्ष : यह एक फल की गुठली है। इसका उपयोग आध्यात्मिक क्षेत्र में किया जाता है। माना जाता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शंकर की आंखों के जलबिन्दु (आंसू) से हुई है। इसे धारण करने से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है।
नागदेवता : भगवान शिव परम योगी, परम ध्यानी व परम तपस्वी हैं। जब अमृत मंथन हुआ था, तब अमृत कलश के पूर्व गरल (विष) को उन्होंने कंठ में रखा था। जो भी विकार की अग्नि होती है, उन्हें दूर करने के लिए शिव ने विषैले नागों की माला पहनी।
खप्पर : माता अन्न्पूर्णा से शिव ने प्राणियों की क्षुधा शांति के निमित्त भिक्षा मांगी थी। इसका यह आशय है कि यदि हमारे द्वारा किसी प्राणी का कल्याण होता है, तो उसको प्रदान करना चाहिए।
डमरू : संसार का पहला वाद्य। इसके स्वर से वेदों के शब्दों की उत्पत्ति हुई, इसलिए इसे नाद ब्रह्म या स्वर ब्रह्म कहा गया है।
त्रिशूल : देवी जगदम्बा की परम शक्ति त्रिशूल में समाहित है। यह संसार का समस्त परम तेजस्वी अस्त्र है, जिसके माध्यम से युग-युगांतर में सृष्टि के विरुद्ध होने-सोचनेवाले राक्षसों का संहार किया गया है। इसमें राजसी, सात्विक और तामसी ; तीनों ही गुण समाहित हैं, जो समय-समय पर साधक को उपासना के माध्यम से प्राप्त होते रहते हैं।
शीश पर गंगा : संसार की पवित्र नदियों में से एक गंगा को जब पृथ्वी की विकास यात्रा के लिए आह्वान किया गया, तो पृथ्वी की क्षमता गंगा के आवेग को सहने में असमर्थ थी। ऐसे में शिव ने अपनी जटाओं में गंगा को स्थान देकर सिद्ध किया कि आवेग की अवस्था को दृढ़ संकल्प के माध्यम से संतुलित किया जा सकता है।
चन्द्रमा : चन्द्रमा मन का कारक ग्रह माना गया है। चन्द्र आभा, प्रज्वल, धवल स्थितियों को प्रकाशित करता है, जो मन के शुभ विचारों से उत्पन्न होते हैं। ऐसी अवस्था में प्राणी अपने यथायोग्य श्रेष्ठ विचारों को पल्लवित करते हुए सृष्टि के कल्याण में आगे बढ़ सकता है।