Dharma-Karma, Spirituality, Astrology, Dharm- adhyatm, religious : दानवीर दैत्यराज बलि के एक सौ प्रतापी पुत्र थे। इसमें वाणासुर सबसे बड़ा था। वह शिवजी का बहुत बड़ा भक्त था। उसने महादेव को प्रसन्न करने के लिए बड़ी कठोर तपस्या की। भगवान शंकर जी उसकी तपस्या से खुश होकर उसे सहस्रबाहु तथा अपार बल दे दिया। अब उसके सहस्रबाहु और अपरमित बल के होने से कोई भी उससे युद्ध करने का साहस नहीं करता था। इस वजह से वह बहुत अहंकारी बन गया। जब बहुत वर्ष बीतने के बाद भी उससे किसी योद्धा ने युद्ध के लिए ललकारा नहीं तो वाणासुर आशुतोष भगवान के पास जाकर बोला, ‘हे चराचर जगत के ईश्वर ! मुझे युद्ध करने की इच्छा हो रही है किन्तु कोई भी मुझसे युद्ध नहीं कर रहा। अतः कृपा करके अब आप ही मुझसे युद्ध करिये। ‘उसकी ललकार सुनकर भगवान शंकर को गुस्सा आ गया, परंतु वाणासुर उनका परम् भक्त था, इसलिए अपने क्रोध का शमन कर उन्होंने वाणासुर से कहा, ‘ रे मूर्ख ! जा तुझसे युद्ध करके तेरे अहंकार को चूर-चूर करने वाला उत्पन्न हो चुका है। जब तेरे महल की ध्वजा गिर जाये तो जान लेना कि तेरा शत्रु आ गया है।’
यही मेरा चित्तचोर है, अब मैं इनके बिना नहीं रह सकती
वाणासुर की एक अनिंद्य सुंदरी कन्या थी -उषा। एक बार उषा ने स्वप्न में श्री कृष्ण के पौत्र तथा प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध को देखा तो उसके सजीले रूप पर मोहित हो गई। उसने अपने सपने की बात अपनी सखी चित्रलेखा को बताई तो चित्रलेखा ने अपने योगमाया से अनिरुद्ध का चित्र बनाकर, उषा को दिखाकर पूछा, ‘क्या तुमने इसी को स्वप्न में देखा था ?’
उषा मुग्ध भाव से देखते हुए बोली, ‘हां, यही मेरा चित्तचोर है। अब मैं इनके बगैर नहीं रह सकती।’ चित्रलेखा ने द्वारिका जाकर सोते हुए अनिरुद्ध को पलंग सहित उषा के महल में पहुंचा दिया। अब नींद खुलने पर स्वयं को एक नये स्थान पर पाया और समीप एक अनिंद्य सुंदरी को बैठे देखा। उसके पूछने पर उषा ने बताया कि वह वाणासुर की पुत्री है और उसे (अनिरुद्ध को) पति रूप में पाने की कामना रखती है। अनिरुद्ध भी उषा के रूप – लावण्य पर मोहित हो गया और उसके साथ महल में ही रहने लगा।
वाणासुर ने क्रोधित होकर उसे युद्ध के लिए ललकारा
अब वहां के पहरेदारों को सन्देह हुआ कि हो न हो राजकुमारी के महल में अवश्य कोई बाहरी मनुष्य आ पहुंचा है। यह बात उन्होंने जाकर वाणासुर को बताई। उसी समय वाणासुर ने अपने महल की ध्वजा को गिरी हुई देखा। तो उसे विश्वास हो गया कि मेरा शत्रु ही उषा के महल में प्रवेश कर गया है और वह अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर अपनी पुत्री के महल में पहुंचा। उसने वहां देखा कि उसकी पुत्री के समीप पीताम्बर वस्त्र धारण किये बड़े-बड़े नेत्रों वाला एक सांवला सलोना पुरुष बैठा है। वाणासुर ने क्रोधित होकर उसे युद्ध के लिए ललकारा। अनिरुद्ध भी युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हो गया। उसने लोहे से निर्मित एक भयंकर मुद्गर उठाकर उसी से वाणासुर के समस्त अंगरक्षकों को मार डाला। अब तो दोनों में भीषण युद्ध होने लगा। जब वाणासुर ने देखा कि अनिरुद्ध किसी भी प्रकार से उसके काबू में नहीं आ रहा है तो उसने नागपाश में उसे बांधकर बन्दी बना लिया।
श्रीकृष्ण वाणासुर और भगवान शंकर के सामने डटे रहे
इधर अनिरुद्ध की द्वारिकापुरी में खोज होने लगी। उनके न मिलने पर पूरा द्वारिका शोक और रंज में डूब गया। तब देवर्षि नारदजी वहां पर आए। उन्होंने अनिरुद्ध का सारा वृतांत कहा। इस पर श्रीकृष्ण, बलराम जी, सात्यिकी, गद, साम्ब आदि सभी वीर चतुरंगिणी सेना के साथ वाणासुर के नगर शोणितपुर पहुंचे और आक्रमण करके वहां के उद्यान, परकोटे, बुर्ज आदि को नष्ट कर दिया। आक्रमण की खबर सुनकर वाणासुर भी अपनी सेना के साथ आ गया। उसकी सहायता के लिए महादेव भी कार्तिकेय और अपनी भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष और राक्षस आदि की सेना लेकर रणभूमि में पहुंच गए। अब श्री बलराम जी कुम्भाण्ड और कूपकर्ण से जूझ रहे थे, वहीं अनिरुद्ध कार्तिकेय से भिड़े हुए थे और श्रीकृष्ण वाणासुर और भगवान शंकर के सामने डटे हुए थे। घनघोर संग्राम छिड़ा हुआ था। चहुंओर बाणों की बौछार हो रही थी। इधर श्रीकृष्ण के तीक्ष्ण बाणों से महादेव की सेना आहत होकर भाग निकली। बलरामजी ने कुम्भाण्ड और कूपकर्ण को परलोक भेज दिया।
महादेव ने भी अपना ब्रह्मास्त्र चला दिया
भगवान आशुतोष के समस्त अस्त्रों को श्री कृष्ण ने ब्रह्मास्त्र से काट डाला तो महादेव ने भी अपना ब्रह्मास्त्र चला दिया। बहुत ही विचित्र युद्ध चल रहा था। एक तरफ लीलाधारी और दूसरी तरफ डमरूधारी … श्रीकृष्ण ने उनके ब्रह्मास्त्र को वायव्यास्त्र से, पर्वतास्त्र को आग्नेयास्त्र से,परिजन्यास्त्र तथा पाशुपतास्त्र को नारायणास्त्र से नष्ट कर दिया। रुक्मिणीनाथ ने वाणासुर के सहस्रों हाथों में से केवल चार हाथों को छोड़कर शेष सभी को काट दिया। अंततः पार्वतीनाथ ने वाणासुर से कहा -‘अरे मूढ़ ! ये ईश्वर के भी ईश्वर हैं। ये मेरे भी इष्ट हैं। तू इनकी शरण में चला जा।’भोलेभण्डारी की भेदभरी बातें सुनकर वाणासुर तुरन्त छलिया श्री कृष्ण के चरणों में गिर पड़ा और उनकी स्तुति करते हुए क्षमा याचना करने लगा। वाणासुर को अपनी शरण में आया देख शरणागतवत्सल श्री कृष्ण ने उसे अभयदान दे दिया। और वाणासुर ने अपनी कन्या उषा का विवाह अनिरुद्ध से कर दिया।