In Gyanvapi, Shiva took out water from the trident, Dharma-Karma, Spirituality, Astrology, Dharm- adhyatm, dharm adhyatm, religious : ज्ञानवापी में शिव ने त्रिशूल से निकाला था जल। महादेव ने यहीं माता पार्वती को दिया था विशेष ज्ञान, पुराणों में है इसका उल्लेख। पुराणों के अनुसार, ज्ञानवापी की उत्पत्ति तब हुई थी जब धरती पर गंगा भी नहीं थी। मनुष्य पानी की बूंद-बूंद के लिए तरसता था। तब भगवान शिव ने स्वयं अपने अभिषेक के लिए त्रिशूल चलाकर इसी स्थान पर जल निकाला था। यहीं पर उन्होंने माता पार्वती को ज्ञान दिया। इसीलिए, इसका नाम ज्ञानवापी पड़ा। जहां से जल निकला उसे ज्ञानवापी कुंड कहा गया। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि यह नाम मस्जिद के साथ कैसे जुड़ गया? आइए इस पर पुराण एवं इतिहास के पन्नों से एक-एक कर प्रमुख बिंदुओं पर दृष्टिपात करें।
ज्ञानवापी का अर्थ है ज्ञान का कुंड या जलाशय
ज्ञान का तात्पर्य स्पष्ट है। वापी का अर्थ जलाशय या तालाब होता है। इस तरह ज्ञानवापी का मतलब हुआ ज्ञान का तालाब। पुराणों में काशी में छह वापियों का उल्लेख है। पहली ज्येष्ठा वापी जो काशीपुरा में स्थित थी। अब वह लुप्त हो चुकी है। दूसरी ज्ञानवापी काशी विश्वनाथ मंदिर के पास है। मस्जिद क्षेत्र में होने के कारण इस समय यह सर्वाधिक चर्चित है। तीसरी कर्कोटक वापी नागकुंआ के नाम से प्रसिद्ध है। चौथी भद्रवापी काशी के भद्रकूप मोहल्ले में है। पांचवीं शंखचूड़ा वापी लुप्त हो गई है। छठी सिद्धवापी बाबू बाज़ार में थी। अब लुप्त हो गई है। इनमें से ज्ञानवापी का महत्व सर्वाधिक है। विभिन्न पुराणों में ज्ञानवापी में शिव ने जो जुड़ाव दिखाया, इसकी महिमा का वर्णन है।
पुराणों में है ज्ञानवापी की महिमा का वर्णन
सैकड़ों से लेकर हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए पुराणों में ज्ञानवापी को भगवान शिव का पवित्र स्वरूप बताया गया है। यह शब्द संस्कृत से निकला हिंदी शब्द है। मस्जिद से इसके जुड़ाव का कोई आधार नहीं है। नीचे पढ़ें कुछ पुराणों में इसके बारे में लिखी बातें।
लिंग पुराण के अनुसार-
देवस्य दक्षिणी भागे वापी तिष्ठति शोभना।
तस्यात वोदकं पीत्वा पुनर्जन्म ना विद्यते।
अर्थात- प्राचीन विश्ववेश्वर मंदिर के दक्षिण भाग में जो वापी (ज्ञानवापी) है, उसका पानी पीने से जन्म मरण से मुक्ति मिलती है। स्कंद पुराण में लिखा है-
उपास्य संध्यां ज्ञानोदे यत्पापं काल लोपजं।
क्षणेन तद्पाकृत्य ज्ञानवान जायते नरः।
अर्थात- इसके जल से संध्यावंदन करने का बड़ा फल है। इससे ज्ञान उत्पन्न होता है और पाप से मुक्ति मिलती है।
स्कंद पुराण में इसकी महिमा निम्न तरीके से बताई गई है-
योष्टमूर्तिर्महादेवः पुराणे परिपठ्यते।
तस्यैषांबुमयी मूर्तिर्ज्ञानदा ज्ञानवापिका।
अर्थात- ज्ञानवापी का जल भगवान शिव का ही स्वरूप है।
काशी अवमुक्त और शिव अवमुक्तेश्वर
काशी को भगवान शिव के त्रिशूल पर स्थित उन्हीं की नगरी माना जाता रहा है। यह अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता रहा है। यहां भगवान शिव को अविमुक्तेश्वर कहा जाता है। मुस्लिम आक्रांताओं व आक्रमणकारियों के हमले से पहले काशी में अविमुक्तेश्वर के रूप में स्वयं प्रकट शिवलिंग की पूजा होती थी। उसे आदिलिंग कहा जाता था। दुर्भाग्य से हिंदुओं के इस अति पवित्र स्थल पर कई बार मुस्लिम आक्रांताओं ने आक्रमण किया और मंदिरों को नष्ट किया। मुहम्मद गोरी ने कुतुबुद्दीन ऐबक को काशी विजय के लिए भेजा। कुतुबुद्दीन ऐबक के हमले में वहां के 1000 से अधिक मंदिर तोड़े गए। कहा जाता है कि इन मंदिर की संपत्ति 1400 ऊंटों पर लादकर मोहम्मद गोरी को भेज दी गई। कुतुबुद्दीन को सुल्तान बनाकर गोरी अपने देश वापस लौट गया। कुतुबुद्दीन ने सख्ती से मूर्ति पूजा खत्म करने की कोशिश की। परिणामस्वरूप क्षतिग्रस्त मंदिर वर्षों तक ऐसी ही पड़े रहे।
आक्रांताओं ने बार-बार तोड़े काशी के मंदिर
ज्ञानवापी में शिव ने अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखी। परिणामस्वरूप सन 1296 तक काशी के मंदिर फिर से बन गए। बाद में अलाउद्दीन खिलजी के समय मंदिर फिर से तोड़े गए। फिर 14वीं सदी में तुगलक शासकों के दौर में वहां कई मस्जिदो का निर्माण हुआ। कहा जाता है कि सभी मस्जिदें, मंदिरों के अवशेषों पर बनाई गई थी। 14वीं सदी मे जौनपुर में शर्की सुल्तानो ने और 15वीं सदी में सिकंदर लोदी के समय भी बनारस के मंदिरों को फिर से तोड़ा गया। इसके बाद फिर वर्षों तक मंदिर खंडहर बने रहे। 16वीं सदी में अकबर के शासनकाल में टोडरमल ने अपने गुरु नारायण भट्ट के आग्रह पर 1585 में विश्वेश्वर का मंदिर बनवाया। उसके बारे में कहा जाता है कि यही काशी विश्वनाथ का मंदिर है। टोडरमल ने विधिपूर्वक ,विश्वनाथ मंदिर की स्थापना ज्ञानवापी क्षेत्र में की। इसी ज़माने मे जयपुर के राजा मानसिंह ने बिंदुमाधव का मंदिर बनवाया।
औरंगजेब ने फिर तुड़वाए मंदिर, चार मस्जिदें बनवाईं
औरंगजेब ने 1669 में दोनों भव्य मंदिरों सहित सभी मंदिरों को तोड़ने का फरमान दिया था। इसके बाद चार मस्जिदों का भी निर्माण करवाया। इसमें से तीन उस वक्त के प्रसिद्ध मंदिरों को तोड़कर बनी थी। लोगों के दावे के अनुसार विश्वेश्वर मंदिर की जगह ही ज्ञानवापी मस्जिद बनी। दूसरा दावा यह है की बिंदुमाधव मंदिर के स्थान पर धरहरा मस्जिद बनी। फिर है आलमगीर मस्जिद जो कृतिवासेश्वर मंदिर की जगह बनाई गई। 1820-30 के दौरान ब्रिटिश अधिकारी जेम्स प्रिंसेप द्वारा तैयार 16वीं सदी के नक्शे में काशी में मस्जिद का जिक्र तक नहीं है। हर जगह मंदिर बताया गया है। इसके अनुसार मंदिर प्रांगण के चारों कोनों पर तारकेश्वर, मनकेश्वर, गणेश और भैरव मंदिर का वर्णन है। बीच का हिस्सा गर्भगृह है, जिसमें शिवलिंग बताया गया है। उसके दोनों ओर में शिव मंदिर ही थे।