Know the secret of Brahma Element and anatomy : ब्रह्म तत्व और शरीर रचना का रहस्य जानें। धर्म और अध्यात्म ही नहीं, अपितु विज्ञान के लिए भी यह विषय सर्वाधिक रुचिकर है। इस पर काफी खोज भी हुई है। सनातन धर्म में ऋषियों ने हजारों साल पहले यह रहस्य खोल दिया था। विज्ञान हाल के वर्षों में ब्रह्म तत्व (गॉड पार्टिकल) के संकेत तक पहुंच सका है। इस लेख में मैं सिर्फ सनातन ज्ञान के आधार पर ही इस विषय की चर्चा करूंगा। ब्रह्म तत्व का सीधा संबंध पंच तत्व से है। इनके गुणों के आधार पर देखें तो शरीर में मूल प्रकृति सबसे पहले बुद्धि, फिर अहंकार, फिर पांच तन्मात्राओं, पांच ज्ञानेंद्रियों, पांच कर्मेंद्रियों और मन में परिवर्तित होती है। कुछ विचारक इसके बाद पांच तन्मात्राओं से पांच स्थूल भूतों (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश) में परिवर्तित होने की बात करते हैं।
चार प्रकार के शरीर, पहला स्थूल
शरीर चार प्रकार के होते हैं। यह नियम प्रत्येक जीव पर लागू होता लेकिन स्पष्ट अनुभव मानव शरीर पर किया जा सकता है। ये चारों शरीर हैं-स्थूल, सूक्ष्म, कारण और तुरीय। अब इनके बारे में संक्षिप्त विवरण जानें। पहला स्थूल शरीर है। स्थूल अर्थात वह शरीर जो हमें साक्षात दिखता है। पंच स्थूल भूतों से बना यह शरीर आंखों से दिखता, कानों से सुनाई पड़ता (वाणी, ताली, आदि), नाक से सूंघने में आता, जिह्वा से स्वाद लेने में आता और त्वचा से छूने में आता है। इसी शरीर को काटा-छांटा भी जा सकता है। बाकी तीन शरीर उच्च स्तर की हैं। उन्हें अनुभव और ज्ञान से ही समझा जा सकता है। ब्रह्म तत्व और शरीर रचना का रहस्य जानने में सभी शरीर का समान महत्व है।
सूक्ष्म शरीर
यह शरीर सूक्ष्म तत्त्वों से बना होता है। इसे प्रत्यक्ष देखा या छूआ नहीं जा सकता है। यह स्थूल शरीर के अंदर अंतःकारण चातुष्ट्य (मन, बुद्धि, चित और अहंकार) से बना हुआ है। इसी में हमारे प्रारब्ध कर्म का भी वास है। पूर्व जन्म के कर्मों में से जिनका फल इस जन्म में भोगना पड़ता है वे प्रारब्ध कर्म कहे जाते हैं। इसके दो विभाग हैं- भौतिक और स्वाभाविक। भौतिक शरीर पंच सूक्ष्म भूतों और पंच प्राणों (प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान) से बना होता है। स्वाभाविक शरीर पंच ज्ञानेंद्रियों, मन और बुद्धि का बना होता है। इनकी चेष्टा जीव की प्रवृत्ति के अनुसार होती है। इसलिए यह शरीर जीव के स्वभाव को कार्यान्वित करता है। इसी के कारण, स्थूल शरीर रचना एक समान होने पर भी, जीव स्वभाव से भिन्न होते हैं। इस स्वभाव-भेद से ही इस शरीर का अनुमान भी होता है।
कारण शरीर
मूल प्रकृति का बना शरीर कारण कहलाता है। यह आकाश की तरह सर्वत्र व्यापक है। आकाश के ही समान, जितने भाग में हमारा शरीर स्थित है, उतने भाग को हम अपने शरीर का अंश मान सकते हैं। विकार-रहित प्रकृति का होने के कारण, इसमें पूर्णतया ज्ञान का अभाव होता है। इस अवस्था को गाढ़ निद्रा भी कहा गया है। सरल शब्दों में कारण देह वह है, जिसमें अतृप्त वासना तथा संचित कर्मों का निवास है। इसमें पूर्व जन्म में किए कर्म संचित रहते हैं। इसी कारण देह के चलते जीव का जन्मा होता है (इसीलिए नाम है “कारण” शरीर। जो जन्मा तथा मृत्यु का कारण हो)। ब्रह्म तत्व और शरीर रचना में यहां से आगे जटिल ज्ञान का प्रारंभ होता है।
तुरीय शरीर
शरीर की यह स्थिति मनुष्य को समाधि अवस्था में उपलब्ध होता है । इस माध्यम से वह परमात्मा की अनुभूति कर पाता है। भगवद्गीता का ज्ञान देते हुए भगवान कृष्ण जब अर्जुन को अपना रूप दिखाने के लिए दिव्य चक्षु देते हैं (न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्व चक्षुषा। दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमीश्वरम्॥ गीता 11।8॥), कुछ उसी प्रकार का यह शरीर होता है। इसे प्रकृति का बना नहीं मान सकते हैं। यह कारण शरीर से परे महाकारण शरीर है। यह सर्वव्यापी और चैतान्यमय है। इन सब में से यदि हम स्थूल शरीर को निकाल दें, तो जो बचता है वह जीवात्मा है। जीवात्मा से यदि सूक्ष्म देह मुक्त हो गया (योग साधना से जब साधक उन्मनी अवस्था तक पहुंचता है, तब उसके मन का नाश हो जाता है और कैवल्य समाधि में केवल महाकारण देह का अस्तित्व होता है, जिसे ब्रह्म साक्षात्कार कहते हैं)।
ब्रह्म स्वरूप है तुरीय शरीर
तुरीय शरीर ब्रह्म स्वरूप है। इस स्थिति में आना दुर्लभ है। योगी और साधक लंबी साधना के बाद ही इस स्थिति में पहुंच पाते हैं। तुरीय शरीर को महाकारण या ब्राह्मण भी कहते हैं। इस महाकारण शरीर से जब अविद्या का आवरण मिटता है, तो परब्रह्म स्वरूप, अर्थात ईश्वर बन (मिल) जाता है। ध्यान रहे कि सभी मनुष्य में तुरीय शरीर एक ही है। क्योंकि ईश्वर एक है। इसमें द्वैत भाव का प्राकट्य कारण देह को जगाता है, जिसमें वासना के चलते सूक्ष्म देह अस्तित्व में आ जाता है। तब वह जन्म लेने के लिए किसी स्थूल शरीर को वाहन बनाता है। यही प्रक्रिया उलटी दोहराई जाए तो मुक्ति का मार्ग है। अर्थात महाकारण या तुरीय स्थायी है, बाकि सारे शरीर नश्वर हैं। उपनिषदों में लिखा है- “ब्रह्म सत्यम, जगत मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः।” अर्थात-ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है तथा जीव-ब्रह्म में कोई भेद नहीं है।
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