Many irrefutable arguments in favour of the Temple in Gyanvapi : ज्ञानवापी में मंदिर के पक्ष में कई अकाट्य तर्क। अंग्रेजों व बाद की सरकारों की ढुलमुल एवं तुष्टिकरण की नीति से स्थिति बिगड़ी। 1820-30 में अंग्रेज अफसरों की ओर से तैयार पुराने नक्शे पर ध्यान दें तो शिवलिंग स्पष्ट रूप से मस्जिद परिसर में दिखता है। दूसरी प्रमुख बात कि ज्ञानवापी के सामने बैठे नंदी मस्जिद की ओर देख रहे हैं। नंदी हमेशा शिवलिंग को देखते ही स्थापित होते हैं। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि वह किसकी ओर देख रहे हैं, क्योंकि वह स्थान वर्तमान मंदिर के पीछे है। ऐसे में इस तर्क को बल मिलता है कि शिवलिंग मस्जिद परिसर में ही कहीं स्थापित था। ज्ञानवापी कुंड का जिक्र पंचकोसी परिक्रमा में भी किया गया है। मध्यकाल की पुरानी कलाकृतियों में भी ज्ञानवापी कुंड को मंदिर का हिस्सा दिखाया गया है।
प्राचीन मान्यता से भी पुष्टि
पुरानी कथाओं एवं मान्यता के अनुसार परिक्रमा एवं दर्शन के पहले भक्त इसी स्थान पर संकल्प ले रहे हैं। संकल्प पूरा होने के बाद वे फिर से वहां आते हैं। ज्ञानवापी में ही पंडित भक्तों का संकल्प छुड़वाते हुए कहते हैं- हे, ज्ञानवापी के पीठाधीश्वर, मैं, पंचकोसी परिक्रमा का वाचिक, मानसिक रूप से समर्पित करता हूं। मेरी कामना है कि मेरे प्राण छूटे तो आपकी शरण प्राप्त हो। मान्यता के अनुसार 25 कोस के इस परिक्रमा क्षेत्र में 33 कोटि देवताओं का वास है। औरंगजेब के मंदिर तुड़वाने के 125 साल बाद अर्थात सन 1777 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने ज्ञानवापी के बगल में दोबारा विश्वनाथ मंदिर (वर्तमान वाला) बनवाया। सन 1828 के आसपास नेपाल के राजा ने मंदिर परिसर में नंदी की स्थापना करवाई। इसके बाद महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर के शिखर को सोने से मढ़वाया था।
न्यायालय में भी दर्ज हैं साक्ष्य
ज्ञानवापी में मंदिर के पक्ष में कई अकाट्य तर्क की बात न्यायालय में भी दर्ज है। काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद का मामला सन 1936 में कोर्ट भी पहुंचा था। तब मुस्लिम पक्ष ने पूरे परिसर को मस्जिद करार करने की अपील की थी। अगले वर्ष काशी की ज़िला अदालत ने मुस्लिम पक्ष की अपील को खारिज करते हुए कहा था की ज्ञानकूप के उत्तर में ही भगवान विश्वनाथ का मंदिर है क्योंकि कोई दूसरा ज्ञानवापी कूप बनारस में नहीं है। जज ने ये भी लिखा कि एक ही विश्वनाथ मंदिर है जो ज्ञानवापी परिसर के अंदर है।
पुरानी पुस्तकों में भी हैं वर्णन
अनंत सदाशिव अलतेकर ने 1937 में एक पुस्तक ‘हिस्ट्री आफ बनारस’ प्रकाशित की थी। इसके अनुसार मस्जिद के चबूतरे पर स्थित खंबों और नक्काशी को देखने से प्रतीत होता है कि ये 14वीं-15वीं शताब्दी के हैं। प्राचीन विश्वनाथ मंदिर में ज्योतिर्लिंग और अरघा 100-100 फीट के थे। ज्योतिर्लिंग पर गंगाजल बराबर गिरता रहता था, जिसे पत्थर से ढक दिया गया। वहां शृंगार-गौरी की पूजा-अर्चना होती थी। तहखाना यथावत है, ये खुदाई से स्पष्ट हो जाएगा। प्रकांड विद्वान नारायण भट्ट ने भी अपनी पुस्तक ‘त्रिस्थली सेतु’ में इसे स्पष्ट किया है। संस्कृत में 1585 में लिखी गई पुस्तक के अनुसार यदि कोई मंदिर तोड़ दिया गया हो और वहां से शिवलिंग हटा दिया गया हो या नष्ट कर दिया गया हो, तब भी वह स्थान महात्म्य की दृष्टि से विशेष पूजनीय है। मंदिर नष्ट होने पर खाली जगह की भी पूजा की जा सकती है।
इतिहासकार डा. मोतीचंद के तर्क
डा. मोतीचंद ने अपनी किताब ‘काशी का इतिहास’ में ज्ञानवापी में मंदिर के पक्ष में कई तर्क दिए हैं। उन्होंने लिखा कि ” नारायण भट्ट का समय सन 1514 से 1595 तक था। अर्थात उनके जीवन के बड़े काल में विश्वनाथ मंदिर नहीं था”। मतलब उस दौर में मंदिर टूटा हुआ था और मस्जिद नहीं थी।” उनके अनुसार मंदिर केवल गिराया ही नहीं गया, उस पर मस्जिद बना दी गई। मस्जिद बनाने वालों ने पुराने मंदिर की पश्चिमी दीवार गिरा दी और छोटे मंदिरों को जमीदोंज कर दिए। पश्चिमी, उत्तरी और दक्षिणी द्वार बंद कर दिए। द्वारों पर उठे शिखरों को गिराकर उनकी जगह पर गुंबद खड़े कर दिए। गर्भगृह मस्जिद के मुख्य दालान में परिणत हो गया। चारों अंतरगृह और मंडपों को मिलाकर दालान निकाल दी गई। मंदिर का पूर्वी भाग बरामदे में बदल दिया गया। इसमें अब भी पुराने खंभे लगे हैं।