Dharma-Karma, Spirituality : भगवान जगन्नाथ का विश्व प्रसिद्ध मंदिर ओडिशा के पुरी में स्थित है। यह मंदिर भगवान श्री कृष्ण को समर्पित है। यह सनातन धर्म के चार धामों में से एक प्रमुख है। इस मंदिर का निर्माण पुरी के राजा इंद्रद्युम्न ने भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु के कुछ वर्षों के बाद कराया था। इस मंदिर के निर्माण का आदेश स्वयं भगवान जगन्नाथ ने दिया था, जो भगवान श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट हुए थे। इस मंदिर के निर्माण के पीछे एक रोचक कथा छिपी हुई है। बता दें कि इस मंदिर की ख्याति पूरी दुनिया में है। यहां शाम को घर देश-विदेश से भक्तों का आना जाना लगा रहता है। यहां का रथ मेला विश्व प्रसिद्ध माना जाता है। मान्यता है कि यहां भगवान के दरबार में सच्चे दिल से आने वाले व्यक्ति की सारी परेशानियां दूर हो जाते हैं। भगवान की कृपा भक्तों पर बरसती रहती है। आइए आज हम मंदिर निर्माण से जुड़ी कथा को विस्तार से जानते हैं।
सपने में भगवान जगन्नाथ ने दिए राजा इंद्रद्युम्न को दर्शन
इंद्रद्युम्न मालवा राज्य के एक राजा थे। वह भगवान श्रीकृष्ण के अनन्या भक्त थे। उन्होंने कई महान यज्ञ आयोजित करवाए और अपने राज्य में धर्म की स्थापना की। भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु के कुछ वर्षों बाद एक दिन भगवान जगन्नाथ (जो श्रीकृष्ण के रूप में धरती पर अवतरित हुए थे) ने स्वप्न में इंद्रद्युम्न को दर्शन दिए। उन्होंने सपने में राजा को बताया कि नीलांचल पर्वत पर एक आदिवासी जनजाति का राजा विश्वबसु निवास करते हैं। उसके पास एक नीले रंग की मूर्ति थी, जिसे नीलमाधव के नाम से जाना जाता था। भगवान जगन्नाथ ने कहा कि इंद्रद्युम्न तुम उस मूर्ति को लाओ और अपने राज्य में समुद्र तट पर एक विशाल मंदिर बनवाओ। इसमें मेरी मूर्ति स्थापित करवाओ। यह कहा जाता है कि विश्वबसु अपने पिछले जन्म में शिकारी थे। उनके ही तीर से भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु हुई थी। वह नीले रंग की मूर्ति की पूजा करता था, जो भगवान कृष्ण का हृदय था। धर्मशास्त्र के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने और उनसे कहा था कि जब मेरा अंतिम संस्कार करना तो मेरे हृदय को समुद्र में बहा देना। श्री कृष्ण के आदेशानुसार अर्जुन ने वैसा ही किया। वही ह्रदय कई वर्षों तक समुद्र में भ्रमण करते करते पूरी पहुंचा तो विश्व बसु उसे उठाकर अपने घर ले गए।
राजा ने नीलांचल पर्वत पर ही अन्न जल त्यागा
सपना देखने के बाद राजा इंद्रद्युम्न ने विश्वबसु को खोजने के लिए नीलांचल पर्वत की ओर भेजा। इनमें एक ब्राह्मण विद्यापति भी शामिल थे। वह आदिवासी राजा विश्वबसु से मिले और उन्हें वह मूर्ति दिखाने का अनुरोध किया, लेकिन विश्वबसु ने इसे अस्वीकार कर दिया। इसके बाद विद्यापति ने चतुराई से राजा की बेटी ललिता से विवाह कर लिया। इसके बाद उनसे मूर्ति दिखाने की इच्छा प्रकट की। इस बार राजा विश्वबसु ने अपने दामाद की बात स्वीकार कर ली। उन्होंने मूर्ति दिखाने के लिए दमाद को लेकर अपने साथ चल दिए। मूर्ति एक घने जंगल के भीतर रखी गई थी, लेकिन विद्यापति ने चतुराई से मूर्ति तक पहुंचने के लिए सरसों के बीज बिखेर दिए। कुछ समय बाद, जब पौधे उग आए, तब उसने राजा को इसकी सूचना दी। विद्यापति से जब यह जानकारी राजा इंद्रद्युम्न को मिली तो वह बहुत प्रसन्न हुए। वह फौरन अपने सैनिकों के साथ नील माधव की मूर्ति लेने चल पड़े, लेकिन जब वे उस स्थान पर पहुंचे तो वह मूर्ति वहां से विलुप्त हो चुकी थी। यह देखकर राजा इंद्रद्युम्न बहुत निराश हुए। राजा इतने दुखी हुए कि वह नीलांचल पर्वत पर ही अन्न जल त्याग कर बैठ गए।
इंद्रद्युम्न ने पुरी में एक विशाल मंदिर का निर्माण कराया
इसी दौरान भगवान जगन्नाथ ने पुनः राजा इंद्रद्युम्न को स्वप्न में दर्शन दिए और कहा कि पहले उन्हें एक विशाल मंदिर बनवाना चाहिए। राजा समुद्र के तट पर एक लकड़ी का लट्ठा प्राप्त करेंगे। इस लट्ठे से उन्हें चार मूर्तियाँ बनानी चाहिए, जो भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र (बलराम), बहन सुभद्रा और सुदर्शन चक्र की होंगी। इन मूर्तियों को उन्हें मंदिर में स्थापित करना चाहिए। इस आदेश को प्राप्त करके राजा इंद्रद्युम्न ने पुरी में एक विशाल मंदिर का निर्माण कराया। इसके बाद उन्हें समुद्र तट पर एक काष्ठ/लकड़ी का लट्ठा मिला, जिसे भगवान श्रीकृष्ण का हृदय कहा जाता है, और यह नीले रंग का था। तब राजा इंद्रद्युम्न ने महान शिल्पकार विश्वकर्मा जी की सहायता से इस लट्ठे को मूर्ति का रूप दिया। उन्होंने चार मूर्तियाँ बनवाई, जो भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा और सुदर्शन चक्र की थी। इन सभी मूर्तियों को मंदिर के गर्भगृह में स्थापित किया गया। तब से यह मंदिर सनातन धर्म में एक मुख्य पहचान बन गया।
कलिंग के राजा ने मंदिर का कराया पुनर्निर्माण
इस मंदिर ने सदियों तक अपनी महिमा बनाए रखी और समय के साथ-साथ यह पुराना हो गया। इसलिए, 12वीं शताब्दी में कलिंग के राजा अनंतवर्मन चोडगंग ने इसका पुनर्निर्माण करवाया। उन्होंने जगन्नाथ मंदिर की मरम्मत की और इसे अंतिम रूप में पुत्र राजा अनंग भीमदेव द्वारा सम्पन्न किया गया। आज के समय में, हम जो मंदिर देखते हैं, वह 12वीं शताब्दी में निर्मित माना जाता है।