Dharma adhyatma: यदि साधु के दर्शन प्राप्त हो जायें, तो यह दुर्लभ संयोग होता है। इसका लाभ ही यह है कि हम उनके श्रीचरणों को धो-धो कर पी लें। हालांकि, सम्पूर्ण जगत में जब भी किसी ने स्नान करना होता है, तो वह पानी से ही करते हैं और तन पर लगी धूल को साफ कर लेते हैं।
संसार में यदि आपको किसी की प्रशंसा करनी पड़े, तो आप उन्हीं की प्रशंसा करेंगे, जिन्हें आप दिल से चाहते हैं। लेकिन, जब भगवान शंकर से पूछा गया, कि आप संसार में सबसे अधिक किसे प्रेम करते हैं, तो उन्होंने कहा, “मुझे संत प्रिय हैं। मैं उन्हीं की वंदना करता हूं।”
‘बंदऊं संत समान चित्त हित अनहित नहिं कोई।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोई।।’
भोलेनाथ बोले, “हे भवानी! मैं संतों के श्रीचरणों की वंदना करता हूं, क्योंकि उनका चित्त समता से सराबोर होता है। उनके लिए ना ही तो कोई शत्रु होता है, और न ही कोई मित्र। वे सभी से समान रूप से ही व्यवहार करते हैं। जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल, उन दोनों को ही सुगंधित करते हैं, जिन्होंने उन्हें डाली से तोड़ा हो, या फिर जिन्होंने उन्हें प्यार से अपनी अंजलि में रखा हो। संसार में ऐसा कौन होगा, जो ऐसी अभूतपूर्व क्षमता का धनी होगा? यह चरित्र संसार की बड़ी से बड़ी पाठशाला में भी नहीं सिखाया जा सकता। लेकिन, सामान्य से भी सामान्य से दिखनेवाले संत, इस दुर्लभ गुण के सहज ही स्वामी होते हैं।”
किसी ने गोस्वामी जी से भी पूछ लिया, कि जितनी महिमा आप भी संतों की गाते हैं, क्या त्रिदेव भी उतनी ही महिमा गाते हैं? गोस्वामी जी इसका ऊत्तर बड़ी बेबाकी से देते हैं…
‘बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी।
कहत साधु महिमा सकुचानी।।
सो मो सन कहि जात न कैसें।
साक बनिक मनि गुन गन जैसें।।’
गोस्वामी जी कहते हैं, “मैं भी कहां संतों की महिमा गा पाता हूं। मुझे तो छोड़िए, मैं तो एक क्षुद्र-सी बुद्धि का स्वामी हूं। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, कवि और पंडित भी संतों की महिमा गाने बैठें, तो वे भी संतों के गुण नहीं गा सकते। वे तो उल्टा लज्जा जाते हैं। जब इतनी बड़ी-बड़ी हस्तियां संतों के गुण नहीं गा पा रही हैं, तो मेरी भला क्या बिसात है। यदि मैं संतों की महिमा गाऊं भी, तो यह ऐसा होगा, जैसे साग तरकारी बेचनेवाले से, मणियों के गुण नहीं कहे जाते।”
श्रीराम चरित मानस ग्रंथ में ही नहीं, अन्या प्रमाणिक ग्रंथों में भी संतों की अपार महिमा है। गुनबाणी में भी कहा गया है…
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“चरन साध के धोइ धोइ पीउ।।
अरपि साध कउ अपना जीउ।।
साध की धूरि करहु इसनानु।।
साध ऊपरि जाईए कुरबानु।।”
जब आपको संतों का सान्निध्य प्राप्त हो, तो आपको पानी से स्नान नहीं करना होता, अपितु संतों की चरण धूली से ही स्नान करना होता है। संत जहां भी बैठ जाते हैं, वहां आस पास का वातावरण भी स्वतः ही पवित्र हो जाता है। वह वातावरण ऐसा होता है, कि उसमें यदि कोई पापी व दुष्ट व्यक्ति भी जाये और वहां लगातार संग करे, तो यदि वह सर्प की प्रवृत्ति का भी होगा, तो निश्चित है, कि वह फूलों का हार बन जायेगा।
भक्त प्रह्लाद इसका सबसे ठोस उदाहरण है। प्रहलाद वैसे था तो राक्षसराज हिरण्यकश्यपु का ही पुत्र। लेकिन अवगुणों को धारण करने के संबंध में, वह बिलकुल भी अपने पिता पर नहीं गया। कारण कि भक्त प्रह्लाद का जन्म ही नारद मुनि के आश्रम में हुआ। जिस कारण भक्त प्रह्लाद ने, भले ही बाद में अपने पिता का ही अनुसरण करना हो, लेकिन नारद जी के पावन सान्निध्य ने भक्त प्रहलाद की वृत्ति राक्षसी होने ही नहीं दी। इसलिए जीवन में यदि कभी भी पूरे संतों का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हो, तो उसे कभी भी नहीं टालना चाहिए।
यहां एक प्रश्न उठना स्वाभाविक हो सकता है, कि क्या आज के समय में भी वैसे ही महान संत विद्यमान हैं, जैसे कि सतयुग में थे ? कारण कि जैसे कालनेमि या रावण भी संत वेष बना कर, अनाचार करने का प्रयास कर चुके हैं, ठीक वैसे ही आज भी तो कितने ही दुष्ट जन, संतों के वेष मे घूम रहे हैं। हम कैसे पहचानेंगे, कि हमारे समक्ष अगस्त्य मुनि जैसे महान संत सुशोभित हैं, अथवा रावण जैसे कपट मुनि हैं? तो इसका एक ही स्टीक उत्तर है, वह यह कि जब भी आपको कोई पूर्ण संतों का सान्निध्य प्राप्त होगा, तो वे हमसे कोई मंत्र माला के जाप तक ही सीमित नहीं रखेंगे, अपितु हमें परमात्मा के साक्षात दर्शन भी करायेंगे। धार्मिक ग्रंथों में संतों की यही एकमात्र पहचान बतायी गयी है।