राजीव थेपड़ा
धार्मिक मुद्दे केवल वोट की राजनीति भर नहीं है। वोट की राजनीति ना भी करें, तो भी संसार के अधिकांश देशों में धार्मिकता का कट्टर नाच इस प्रकार चलता रहता है कि उन क्षेत्रों की डेमोग्राफी सदा-सदा के लिए बदल जाती है ! यहां तक कि वहां के मूल लोग सदा-सदा के लिए वहां से निर्वासित कर दिये जाते हैं और बचे खुचे लोगों के ऊपर जिस प्रकार का अत्याचार होता है, वह अत्यन्त लोमहर्षक होता है।…और ये बातें कोरी गल्प नहीं हैं ! ये पिछले हजार साल से देखने में आ रही है और लिखित इतिहास के रूप में है और यह सब हमारी स्वयं की आंखों के सम्मुख भी घट रहा है, इसलिए इसे झुठलाया भी नहीं जा सकता ! हालांकि, अपने बावलेपन में हम इससे आंखें अवश्य मूंद सकते हैं, क्योंकि आंखें मूंद लेने से हम कुछ भी अप्रिय देखने से बच जाते हैं !! लेकिन, ऐसा नहीं है कि वह अप्रिय घटना बंद हो जाती है ! ऐसे में यथास्थितिवादी होना हद से ज्यादा खतरनाक है और उससे भी खराब यह है कि इस खराब स्थिति के विरोध में आवाज उठानेवाले लोग ही जब गलत करार दिये जाते हैं और वह केवल और केवल वोट की राजनीति करनेवाले कहे जाने लगते हैं, तो ऐसे में उन्हीं तत्त्वों को प्रश्रय मिलता है, जो तत्त्व एक्चुअली बेसिकली यह गंदा खेल खेल रहे होते हैं !…और, जिनके कारण उन क्षेत्रों की डेमोग्राफी बदल चुकी होती है और वे तत्त्व हवा को इस प्रकार बहा ले जाने में कामयाब हो जाते हैं कि सभी को ऐसा लगने लगता है कि वोट की राजनीति करने वाले ही यह गड़बड़ कर रहे हैं !
इस प्रकार का एक भयानक घालमेल इस पूरे विश्व में चल रहा है और एक विशेष प्रकार का समुदाय पूरे विश्व में चहुंओर पैर पसारता जा रहा है और जहां वह पैर पसार रहा है, वहां-वहां का वातावरण हिंसक होता दिखाई देता है। अब यदि जिनको नहीं दिखाई देता, उनके शुतुरमुर्गपन पर हमें कुछ नहीं कहना है। लेकिन, यदि सचमुच वह आंख खोल कर कुछ देखना चाहें और अपने संवेदनशील हृदय से उसे समझाना चाहें, तो यह सब कुछ उन्हें एक अंधी खाई की माफिक की भांति दिखाई देने लगेगा और तब इसके प्रति उन्हें भी चिन्ता होने लगेगी। लेकिन, व्यर्थ के मानवाधिकारों के मारे हम सब बराबरी का समाज चाहनेवाले लोग बराबरी चाहते-कहते कब अपने ही लोगों के प्रति गैर बराबरी वाले बर्ताव तक पहुंच जाते हैं ; यह तक हमें पता नहीं चलता ! इस प्रकार एक तरह का पार्सैलिटी भरा चुनाव ही हमारा विशेषाधिकार बन जाता है और हम अपने विचार के अनुकूल लगनेवाली चीजों को ही सही मानते और समझते हैं और उसे सही ना माननेवाले लोगों के खिलाफ एक प्रकार का युद्ध का बिगुल बजा देते हैं !
हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि वोट की राजनीति नहीं होती। वोट की राजनीति भी होती है और इस राजनीति में कोई भी दूध का धुला नहीं है। किन्तु, इस बात के लिए भी केवल और केवल एक ही पक्ष को दोषी ठहरना इस विषय को बिल्कुल एकांगी दृष्टि से देखना कहा जायेगा। क्योंकि अब तक इस देश की राजनीति में जो होता आया है, उसमें भी बहुत भयंकर तुष्टीकरण की राजनीति की गयी है। किन्तु, हममें से बहुत सारे सो कॉल्ड उदारवादियों ने तुष्टीकरण शब्द को सामाजिक चिन्ता का विषय नहीं बना कर एक अर्थहीन राजनीतिक शब्द भर मान लिया, जिसे केवल एक दक्षिण पंथी दल उपयोग करता है और वह सरासर इस झूठ का इस्तेमाल करता है। ऐसा कह कर भी लोगों को लगातार बरगलाया जाता रहा। अब यह बात अलग है कि उस राजनीति से जिनका तुष्टीकरण किया गया, उनका भी कोई बहुत भला नहीं हुआ । लेकिन, भावनात्मक ज्वार के हिसाब से इस राजनीति ने एक विशेष समुदाय को इतना अधिक बल प्रदान करने की चेष्टा की, कि दूसरा समुदाय इस बात को लेकर चिन्तित रहने लगा कि यदि आगे भी ऐसा निरन्तर जारी रहा, तो फिर ऐसे में उनका स्वयं का क्या होगा ? जो इस देश में 10000 साल से रहते आये हैं और उनकी यह चिन्ता एकदम से निर्मूल भी नहीं है, क्योंकि देखते ना देखते इस देश के अनेक हिस्सों में उपरोक्त समुदाय इतना ज्यादा विस्तृत हो गया कि उसने वहां के मूल समुदाय को न केवल पूरी तरह से निर्वासित कर दिया, अपितु जहां पर भी वह बहुसंख्यक गया, वहां उसने बहुत तरह के अत्याचारों का एक इतिहास निर्मित कर दिया । पिछले सात आठ दशकों के दौरान देश के विभिन्न क्षेत्रों में हुईं बहुत सारी घटनाएं इस बात की लिखित परिचायक हैं।
बेशक, इस तरह की बातों को झुठला दिया जाता हो। लेकिन सूचना के इस युग में, जहां तकनीक का बोलबाला हो, किसी भी बात को पूरी तरह से छुपाया नहीं जा सकता और उसे छिपाये जाने का प्रयास एक बार फिर से उस राजनीति को न केवल जनता की नजर में संदिग्ध बनाता है, बल्कि उसे बिलकुल अविश्वसनीय भी बना डालता है।…और, ऐसा इस देश की कई पार्टियों के साथ हुआ। जो एक पक्षीय राजनीति करते हुए अघोषित रूप से अपने आप को पूरी तरह से एक वर्ग, एक समुदाय के अनुचित हितों को पोषित करते हुए उस वर्ग को इस हद तक हिंसक हो जाने दिया, जो किसी भी प्रकार से असामाजिक और असवैधानिक था !! आज हम उसी बोये गये बीज के वृक्ष होते जाने को देखते हुए उसके विषैले फलों को खाने के लिए विवश हैं !! चाहे कोई भी युग हो और कोई भी धर्म हो धर्मांधता का वृक्ष केवल और केवल विषैले फल ही प्रदान करता है ! धर्म के साथ यदि उदारता नहीं, तो वह धर्म मनुष्य के किसी कार्य का नहीं !!
फिर कोई एक पक्ष की राजनीति करेगा, तो अपने आप कोई दूसरा पक्ष भी दूसरे पक्ष के लिए खड़ा हो जायेगा। अब दोनों पक्ष अपने-अपने पक्ष के लिए लड़ने के लिए एक-दूसरे पक्ष को गलत बताते हुए कब हिंसक और अनुपयोगी हो जाते हैं और समाज के लिए व्यर्थ हो जाते हैं। यह तक इस राजनीति को पता नहीं चलता !! राजनीति का काम है समावेशी होना। पूरे समाज के साथ सामंजस्य से बिठाना। हर धर्म और हर वर्ग हर समुदाय को बराबर समझते हुए बिना किसी पक्षपात के उन सबके लिए कार्य करना। लेकिन, व्यवहार में होता ठीक उल्टा है। सभी अपने-अपने पक्ष के स्वार्थ के लिए इस हद तक लामबंद हो जाते हैं कि वह यह भी नहीं सोच पाते कि उनके किस कार्य से उस पक्ष का वास्तविक लाभ है और किस कार्य से दूसरे पक्ष की अत्यधिक हानि होने की सम्भावना है या हो रही है। राजनीति एक तरह का न्यायिक कर्म भी है। न्याय के अभाव में किसी भी प्रकार की राजनीति नहीं की जा सकती। लेकिन, जब एक पक्षीय राजनीति होती है, तो वहां न्याय गुम हो जाता है और अंधभक्ति आरम्भ हो जाती है। यह अंधभक्ति भी सभी पक्षों की अपने पक्ष के लिए होती है। लेकिन, कोई किसी को अंधभक्त कह कर खुश होता है, तो कोई किसी को गोदी मीडिया सम्बोधित कर ! तो दूसरी तरफ दूसरा वाला दूसरे पक्ष को देशद्रोही और न जाने क्या-क्या संज्ञा दे डालता है !
किन्तु, कभी भी किसी भी काल में इस प्रकार की राजनीति स्वस्थ नहीं होती और यह पूरे समाज के वातावरण को अस्वस्थ कर देती है। पूरा समाज जब अस्वस्थ हो जाता है और अपने स्वार्थ के लिए निपुण हो जाता है।…तो, उस समाज के भीतर का हर समुदाय अपने-अपने हित के लिए दूसरे के साथ लड़ता नजर आता है और केवल अपने हित के बारे में सोचना निश्चित तौर पर दूसरे के साथ में लड़ना भर नहीं है, बल्कि दूसरे समुदाय के साथ संवाद करना है। लेकिन, यह संवाद ही अब समाप्त होता जा रहा है। क्योंकि, एक समुदाय को ऐसा लगता है कि संवाद द्वारा उसके विषय, उसकी समस्याएं हल नहीं होंगी या उसे दबाया जा रहा है। इसलिए वह तलवार का जोर दिखाता प्रतीत होता है और तलवार कभी भी किसी युग में किसी भी समस्या का समाधान नहीं बनी है। तात्कालिक रूप से आप कुछ समय के लिए किसी को हरा कर या किसी को डरा कर किसी समस्या का समाधान समझ भी लो ।…तो जिनका नाश हुआ है, उनकी अगली पीढ़ियां आपके विरुद्ध खड़ी हो जायेंगी और यही दुष्चक्र हज़ारों वर्षों से चला चला रहा है। लेकिन, फिर भी एक बात कहना लाजिमी जान पड़ती है कि इस युग में एक समुदाय विशेष पूरे विश्व में सामाजिक तौर पर बहुत ज्यादा संगठित और हिंसक होता जा रहा है। उनके एक बड़े समुदाय का उद्देश्य भी केवल धर्मांधता को पोषित करना है और जिनका यह मानना है कि या तो कलमा पढ़ो या फिर गोली खाओ ! यही विगत दिवस कश्मीर के पहलगाम में हुआ और यदि यह आचरण इस सीमा तक लोगों के अन्दर जा घुसा है या इस सीमा तक लोगों का ब्रेनवाश कर दिया गया है कि या तो वह उनके धर्म को माने अथवा मार दिये जायेंगे, ऐसी धमकियां विश्व के अनेकानेक मंचों से हर रोज अपने मतालंबियों के बीच दी जाती है। इससे वातावरण में किस प्रकार का तनाव फैलता है या किसी प्रकार की वह वैमनष्यता फैलती है, इसे भी देखा जाना आवश्यक है !
इस प्रकार की मध्यकालीन सोच किसी भी दृष्टि से मनुष्यता के हित के लिए नहीं प्रतीत होती और इसलिए इस सोच का परिमार्जन किया जाना आज के समय में सबसे महत्ती आवश्यकता बन चुकी है ! यदि उस समुदाय ने अपने भीतर आ चुकी उसे उन कुरीतियों को, उन कुदृष्टियों को नहीं देखा या नहीं समझा, जो उनको इस युग की मनुष्यता के विरुद्ध पोषित कर रही हैं।…तो फिर वह अंततः इस पृथ्वी के नाश के कारक तो बनेंगे ही ! स्वयं भी भस्मासुर बन कर नष्ट हो जायेंगे ! शायद यही मनुष्य सम्भाव्य अंत है। शायद इसी घर्षण से आनेवाले दिनों में मनुष्यता ही विलुप्त नहीं हो जायेगी, बल्कि धरती से मनुष्य भी लुप्त हो जानेवाला है !!