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केवल चक्की के दो पाट नहीं, उसकी धूरी है स्त्री !

केवल चक्की के दो पाट नहीं, उसकी धूरी है स्त्री !

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राजीव थेपड़ा 

यद्यपि, अपने होश सम्भालने के बाद से दुनिया के और खासकर के भारत के जिस समाज को मैंने देखा-जाना-समझा और महसूस किया है, उसमें ज्यादातर स्त्रियों को अपने परिवार के लिए किसी अनवरत चलती हुई चक्की की तरह घूमता हुआ ही पाया है और मजा यह कि परिवार के किसी सदस्य को इसका कदापि भान तक भी नहीं होता !! यहां तक कि एक स्त्री भी दूसरी स्त्री की स्थिति को या उसकी मानसिकता को बिलकुल नहीं समझती या फिर समझ कर भी नासमझ बनी रहती है !! कुछ भी हो, मगर इस प्रकार एक स्त्री द्वारा ही स्त्री की समस्याओं और दूसरी महत्त्वपूर्ण बातों को बहुत ही चतुरता पूर्वक, बल्कि यूं कहें कि कुटिलता पूर्वक नजरअंदाज कर दिया जाता है। इस प्रकार जो सम्मान एक स्त्री को मिलना चाहिए अपने कुटुम्ब में, उस पर सम्मान उसी परिवार की एक अन्य सदस्य स्त्री अथवा स्त्रियां एकदम से कैंची चला देती हैं !!

         मैं लगातार यह महसूस करता आया हूं कि घर में काम को लेकर होनेवालीं लड़ाइयां या किसी एक स्त्री के पक्ष में झुका हुआ माहौल एक दूसरी स्त्री को अक्सर ईर्ष्या भाव में डाल देता है और वह स्त्री अन्य सदस्यों के साथ मिल कर अपने ऊपर भारी पड़ती स्त्री की आलोचना करने लगती है या निंदा करने लगती है !! इसी प्रकार इसका उल्टा भी कई बार सही होता है कि एक भारी पड़ती स्त्री या यूं कहें कि एक मजबूत स्त्री अपनी मजबूत स्थिति का भरपूर दुरुपयोग करती है और नाजायज़ फ़ायदा उठाती है और यहां तक कि वह सामने वालों को नीचा तक दिखाती रहती है। बहुत-सी स्त्रियां तो परपीड़क भी हो जाती हैं, जो एक प्रकार का रोग है, किन्तु जिसको कोई समझ नहीं पाता, बल्कि इसे उस स्त्री-विशेष की विशेषता समझता रहता है !! इस प्रकार स्त्रियां अपने ही घर में अपने निंदक पैदा कर लेती हैं !!

        …तो, इस प्रकार की जो व्यवस्थाएं घर में स्वत: पैदा हो जाती हैं, उससे घर के पुरुष सदस्य अपने-आप यह समझने लगते हैं कि स्त्रियां तो होती ही ऐसी हैं, क्योंकि अपने-अपने पुरुषों से घर की अन्य स्त्री सदस्यों की चुगली हर रोज रात को एक स्त्री ही किया करती है और इस प्रकार एक घर में दुराव-वैमनस्य होते-होते एक स्थायी फूट का वातावरण तैयार हो जाता है। किन्तु चूंकि पुरुष और स्त्री : दोनों ने मिल कर ही यह वातावरण तैयार किया होता है, इसलिए इस खाई को दूर करने का प्रयास कोई नहीं करता। फूट के कारणों पर तो जाने की बात ही बहुत दूर है !! इस प्रकार हम अपनी नासमझी की वजह से या फिर अपनी आंखें बंद करने की वजह से और अपने कच्चे कानों की वजह से हर बार कुछ ऐसी बातों पर विश्वास कर लेते हैं, जो हमारे घर में फूट डालती है ! मजेदार बात यह है कि ज्यादातर मामलों में हम अपने परस्पर निकट के लोगों पर भरोसा नहीं करते, बल्कि दूरवालों की बात पर भरोसा कर के निकट वालों, पर अविश्वास करने लगते हैं !! हालांकि, यह जरूरी नहीं कि निकट वाला ही सही हो या गलत हो, लेकिन यह भी तो सही नहीं कि दूर वाला सही हो !! …तो, जीवन में हर जगह अपनी आंखें खुली रखना बहुत न केवल जरूरी होता है, बल्कि अनिवार्य होता है और हम सब इस अनिवार्य अनिवार्यता को जानते ही नहीं !! …तो, फिर हम लगातार गलत सूत्रों पर भरोसा करते चले जाते हैं और अपने घर में अपने ही लोगों के स्वभाव को, यानी उनकी विशेषताओं और खामियों तक को नजरअंदाज करते हैं !! हमें कम से कम यह तो मालूम ही होना चाहिए कि कौन कैसा है और किस हद तक जा सकता है ?? 

         मेरी समझ से स्त्रियों के प्रति सम्मान में कमी का एक बहुत बड़ा कारण स्त्रियां ही रही हैं, क्योंकि स्त्रियों ने दूसरी स्त्रियों को हमेशा प्रतिद्वंद्वी और यहां तक कि शत्रु की नजर से देखा है तथा तदनुरूप ही उनसे बर्ताव करती आयी हैं और इस प्रकार सदियों से पुरुष की नजरों में स्त्री को गिराती चली आ रही है और ऐसी स्त्रियों ने कुछेक तात्कालिक लाभ के लिए जाने या अनजाने स्त्री को एक जींस में परिणत कर दिया है !! 

      हो सकता है, मेरी सोच में बहुत से लोगों को आपत्ति लगे, लेकिन मैंने हरगिज-हरगिज़ लगभग हर घर में यही सब देखा है और रोज देख भी रहा हूं !! …तो, एक बार दुराव की बात शुरू हो जाने पर वह दुराव दोनों ओर से बढ़ता ही चला जाता है। कोई उस दुराव को कम करने का प्रयास बस इसलिए नहीं करता, क्योंकि अंततः सब के सब कानों के कच्चे होते हैं और इस प्रकार वे बातें एक कान से दूसरे कान तक पहुंचती चली जाती हैं, जो सामने वाले ने कभी कही ही नहीं और तब सामान्य बातों के भी मनमाने अर्थ निकाल कर यहां तक कि प्रतिद्वंद्वी के मन के भीतर की भी बातों तक का भी अंदाजा लगा लिया जाता है आपस में शत्रुता पाले बैठे लोगों द्वारा !! 

    फिर इसका इलाज क्या है ? एक इलाज तो समझ में आता है कि स्त्री द्वारा ही स्त्री के सम्मान को इस प्रकार ठेस नहीं पहुंचायी जानी चाहिए और दूसरा है कि पुरुषों को भी अपनी आंखें कम से कम इतनी तो खुली रखनी ही चाहिए कि वे सच को सच की तरह देख सकें और अपने घर में कार्य कर रहीं और रह रहीं स्त्रियों के काम को सम्पूर्णतया वाजिब नजरों से देख सकें और उस पर अपना उचित निर्णय ले सकें। जब तक ये दोनों बातें नहीं होंगी, कोई भी किसी भी स्त्री को उसका सम्मान हरगिज़-हरगिज़ नहीं दिला सकता !!

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