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Dharm adhyatm : दैवी संपदा / सात्त्विक मनुष्य के 32 लक्षण, क्या आप में हैं ये लक्षण ? जानें विस्तार से 

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Dharma-Karma, Spirituality, Astrology, Dharm – adhyatm, dharm adhyatm, religious : दैवी संपदा के 32 में से 9 लक्षणों का (अभय सत्त्वसंशुद्धि, ज्ञानयोगव्यवस्थिति, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, आर्जव) वर्णन इस श्लोक में किया जा रहा है। शेष लक्षणों का अगले श्लोकों में वर्णन किया गया है। 

अध्याय 16 श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः । 

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥ १ ॥ 

श्रीभगवान् बोले :- अभयम् – भयका सर्वथा अभाव, सत्त्वसंशुद्धिः – अन्तःकरणकी अत्यन्त शुद्धि, ज्ञानयोगव्यवस्थितिः – ज्ञानके लिये योगमें दृढ़ स्थिति, दानं – सात्त्विक दान, दम: – इन्द्रियों का दमन, यज्ञ – यज्ञ, स्वाध्याय: – स्वाध्याय, तपः – कर्तव्य पालन के लिए कष्ट सहना, च – और, आर्जवम् – शरीर-मन-वाणी की सरलता

दैवी संपदा के 32 में से 9 लक्षणों का (अभय सत्त्वसंशुद्धि, ज्ञानयोगव्यवस्थिति, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, आर्जव) वर्णन इस श्लोक में किया जा रहा है। शेष लक्षणों का अगले श्लोकों में वर्णन किया गया है। 

व्याख्या – 15 वें अध्याय के 19 वें श्लोक में भगवान ने कहा कि जो मुझे पुरुषोत्तम जान लेता है, वह सब प्रकार से मेरा ही भजन करता है अर्थात् वह मेरा अनन्य भक्त हो जाता है। इस प्रकार एकमात्र भगवान्‌ का उद्देश्य होने पर साधक में दैवी सम्पत्ति स्वतः प्रकट होने लग जाती है। अतः भगवान् पहले तीन श्लोकों में क्रमशः भाव, आचरण और प्रभावको लेकर दैवी-सम्पत्ति का वर्णन करते हैं।

‘अभयम्” – अनिष्टकी आशंकासे मनुष्य के भीतर जो घबराहट होती है, उसका नाम भय है और उस भयके सर्वथा अभाव का नाम ‘अभय’ है।

भय 2 प्रकार का होता है- (१) बाहर से और (२) भीतर से।

(१) बाहरसे आनेवाला भय – (क)  चोर, डाकू, व्याघ्र, सर्प आदि प्राणियों से जो भय होता है, वह बाहर का भय है। यह भय शरीरनाश की आशंका से ही होता है। परन्तु जब यह अनुभव हो जाता है कि यह शरीर नाशवान है और जानेवाला ही है, तो फिर भय नहीं रहता।

बीड़ी-सिगरेट, अफीम, भाँग, शराब आदिके व्यसनों को छोड़ने का एवं व्यसनी मित्रों से अपनी मित्रता टूटने का जो भय होता है, वह मनुष्य की अपनी कायरता से ही होता है। कायरता छोड़ने से भय नहीं रहता ।

(ख)  अपने वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार कर्तव्य-पालन करते हुए उसमें भगवान की आज्ञा के विरुद्ध कोई काम न हो जाय, हमें विद्या पढ़ाने वाले, अच्छी शिक्षा देनेवाले आचार्य, गुरु, सन्त महात्मा, माता–पिता आदि के वचनों की आज्ञा की अवहेलना न हो जाय; हमारे द्वारा शास्त्र और कुलमर्यादा के विरुद्ध कोई आचरण न बन जाय – इस प्रकार का भय भी बाहरी भय कहलाता है । परन्तु यह भय वास्तव में भय नहीं है, प्रत्युत यह तो अभय बनानेवाला भय है। ऐसा भय तो साधक के जीवन में होना ही चाहिये। ऐसा भय होनेसे ही वह अपने मार्ग पर ठीक तरहसे चल सकता है। कहा भी है –

हरि-डर, गुरु-डर, जगत-डर, डर करनी में सार । 

रज्जब डऱ्या सो ऊबऱ्या, गाफिल खायी मार ॥ 

(२) भीतर से पैदा होनेवाला भय –

(क)  मनुष्य जब पाप, अन्याय, अत्याचार आदि निषिद्ध आचरण करना चाहता है, तब (उनको करने की भावना मन में आते ही) भीतर से भय पैदा होता है। मनुष्य निषिद्ध आचरण तब तक करता है, जब तक उसके मन में मेरा शरीर बना रहे, मेरा मान-सम्मान होता रहे, मेरे को सांसारिक भोग-पदार्थ मिलते रहें, इस प्रकार सांसारिक जड वस्तुओं की प्राप्ति का और उनकी रक्षा का उद्देश्य रहता हैं। परन्तु जब मनुष्य का एकमात्र उद्देश्य चिन्मय-तत्त्व को प्राप्त करने का हो जाता है, तब उसके द्वारा अन्याय, दुराचार छूट जाते हैं और वह सर्वथा अभय हो जाता है। कारण कि उसके लक्ष्य परमात्मतत्त्व में कभी कमी नहीं आती और वह कभी नष्ट नहीं होता।

(ख)  जब मनुष्य के आचरण ठीक नहीं होते और वह अन्याय, अत्याचार आदि में लगा रहता है, तब उसको भय लगता है। जैसे, रावण से मनुष्य, देवता, यक्ष, राक्षस आदि सभी डरते थे, पर वही रावण जब सीताका हरण करने के लिये जाता है, तब वह डरता है। ऐसे ही कौरवों की ११ अक्षौहिणी सेना के बाजे बजे, तो उसका पाण्डव-सेनापर कुछ भी असर नहीं हुआ (गीता १.१३), पर जब पाण्डवोंकी ७ अक्षौहिणी सेनाके बाजे बजे, तब कौरव सेनाके हृदय विदीर्ण हो गये (अध्याय १.१९) । तात्पर्य यह कि अन्याय, अत्याचार करनेवालों के हृदय कमजोर हो जाते हैं, इसलिये वे भयभीत होते हैं। जब मनुष्य अन्याय आदि को छोड़कर अपने आचरणों एवं भावों को शुद्ध बनाता है, तब उसका भय मिट जाता है।

(ग)  मनुष्य शरीर प्राप्त करके यह जीव जबतक करने योग्य को नहीं करता, जानने योग्य को नहीं जानता और पाने योग्य को नहीं पाता, तबतक वह सर्वथा अभय नहीं हो सकता; जीवन में भय रहता ही है।

भगवान की तरफ चलनेवाला साधक भगवान पर जितना जितना अधिक विश्वास करता है और उनके आश्रित होता है, उतना ही वह अभय होता चला जाता है। उसमें स्वतः यह विचार आता है कि मैं तो परमात्माका अंश हूँ; अतः कभी नष्ट होनेवाला नहीं हूँ, तो फिर भय किस बात का?? और संसार के अंश शरीर- प्रतिक्षण नष्ट हो रहे हैं, तो फिर भय किस बात का ? ऐसा विवेक स्पष्टरूपसे होनेपर भय स्वतः नष्ट हो जाता है और साधक सर्वथा अभय हो जाता है।

भगवान के साथ सम्बन्ध जोड़ने पर, भगवान्‌को ही अपना मानने पर शरीर, कुटुम्ब आदि में ममता नहीं रहती । ममता न रहने से मरने का भय नहीं रहता और साधक अभय हो जाता है।

सत्त्वसंशुद्धिः – अन्तःकरण की सम्यक् शुद्धि को सत्त्वसंशुद्धि कहते हैं। सम्यक् शुद्धि क्या है? संसार से राग- रहित होकर भगवान में अनुराग हो जाना ही अन्तःकरण की सम्यक् शुद्धि है। जब अपना विचार, भाव, उद्देश्य, लक्ष्य केवल एक परमात्मा की प्राप्ति का हो जाता है, तब अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। कारण कि नाशवान् वस्तुओं की प्राप्ति का उद्देश्य होनेसे ही अन्तःकरण में मल, विक्षेप और आवरण- ये तीन तरह के दोष आते हैं। शास्त्रों में मल-दोष को दूर करनेके लिये निष्कामभाव से कर्म (सेवा), विक्षेप-दोष को दूर करने के लिये उपासना और आवरण-दोष को दूर करने के लिये ज्ञान बताया है। अन्तःकरण की शुद्धि के लिये सबसे बढ़िया उपाय है- अन्तःकरण को अपना न मानना ।

साधक को पुराने पापको दूर करनेके लिये या किसी परिस्थिति के वशीभूत होकर किये गये नये पापको दूर करनेके लिये अन्य प्रायश्चित्त करनेकी उतनी आवश्यकता नहीं है। उसको तो चाहिये कि वह जो साधन कर रहा है, उसीमें उत्साह और तत्परतापूर्वक लगा रहे। फिर उसके ज्ञात-अज्ञात सब पाप दूर हो जायँगे और अन्तःकरण स्वतः शुद्ध हो जायगा।

साधक में ऐसी एक भावना बन जाती है कि साधन-भजन करना अलग काम है और व्यापार-धंधा आदि करना अलग काम है अर्थात् ये दोनों अलग-अलग विभाग हैं। इसलिये व्यापार आदि व्यवहार में झूठ-कपट आदि तो करने ही पड़ते हैं-ऐसी जो छूट ली जाती है, उससे अन्तःकरण बहुत ही अशुद्ध होता है। साधन के साथ-साथ जो असाधन होता रहता है, उससे साधन में जल्दी उन्नति नहीं होती। इसलिये साधक को सदा सावधान रहना चाहिये अर्थात् नया पाप कभी न बने-ऐसी सावधानी सदा सर्वदा बनी रहनी चाहिये।

साधक भूलसे किये हुए दुष्कर्मों के अनुसार अपने को दोषी मान लेता है और अपना बुरा करनेवाले व्यक्ति को भी दोषी मान लेता है, जिससे उसका अन्तःकरण अशुद्ध हो जाता है। उस अशुद्धि को मिटाने के लिये साधक को चाहिये कि वह भूलसे किये हुए दुष्कर्म को पुनः कभी न करने का दृढ़ व्रत ले ले तथा अपना बुरा करनेवाले व्यक्ति के अपराध को क्षमा माँगे बिना ही क्षमा कर दे और प्रार्थना करे कि ‘हे नाथ! मेरा जो कुछ बुरा हुआ है, वह तो मेरे दुष्कर्मोंका ही फल है। वह बेचारा तो मुफ्त में ही ऐसा कर बैठा है। उसका इसमें कोई दोष नहीं है। आप उसे क्षमा कर दें।’ इससे अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है।

ज्ञानयोगव्यवस्थिति: – ज्ञानके लिये योगमें स्थित होना अर्थात् परमात्मतत्त्वका जो ज्ञान (बोध) है, वह चाहे सगुणका हो या निर्गुणका, उस ज्ञानके लिये योगमें स्थित होना आवश्यक है। योगका अर्थ है-सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्ति अप्राप्ति में, मान-अपमान में, निन्दा-स्तुति में, रोग- नीरोगता में सम रहना अर्थात् अन्तःकरण में हर्ष-शोकादि न होकर निर्विकार रहना ।

‘दानम्’ – लोकदृष्टिमें जिन वस्तुओंको अपना माना जाता है, उन वस्तुओंको सत्पात्रका तथा देश, काल, परिस्थिति आदिका विचार रखते हुए आवश्यकतानुसार दूसरोंको वितीर्ण कर देना ‘दान’ है। दान कई तरहके होते हैं; जैसे भूमिदान, गोदान, स्वर्णदान, अन्नदान, वस्त्रदान आदि । इन सबमें अन्नदान प्रधान है। परन्तु इससे भी अभयदान प्रधान हैं। उस अभयदानके दो भेद होते हैं –

(१) संसारकी आफतसे, विघ्नोंसे, परिस्थितियोंसे भयभीत हुएको अपनी शक्ति, सामर्थ्यके अनुसार भयरहित करना, उसे आश्वासन देना, उसकी सहायता करना। यह अभयदान उसके शरीरादि सांसारिक पदार्थोंको लेकर होता है।

(२) संसारमें फँसे हुए जन्म-मरणसे रहित करनेके लिये भगवान्‌की कथा आदि सुनाना। गीता, रामायण, भागवत आदि ग्रन्थोंको एवं उनके भावको सरल भाषा में छपवाकर सस्ते दामों में लोगों को देना अथवा कोई समझना चाहे तो उसको समझाना, जिससे उसका कल्याण हो जाय। ऐसे दान से भगवान बहुत राजी होते हैं (गीता१८.६८-६९); क्योंकि भगवान् ही सबमें परिपूर्ण हैं। अतः जितने अधिक जीवोंका कल्याण होता है, उतने ही अधिक भगवान् प्रसन्न होते हैं। यह सर्वश्रेष्ठ अभयदान है। इसमें भी भगवत्-सम्बन्धी बातें दूसरोंको सुनाते समय साधक वक्ताको यह सावधानी रखनी चाहिये कि वह दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें विशेषता न माने, = प्रत्युत इसमें भगवान्‌की कृपा माने कि भगवान् ही श्रोताओंके रूपमें आकर मेरा समय सार्थक कर रहे हैं।

ऊपर जितने दान बताये हैं, उनके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़कर साधक ऐसा माने कि अपने पास वस्तु, सामर्थ्य, योग्यता आदि जो कुछ भी है, वह सब भगवान्ने दूसरोंकी सेवा करनेके लिये मुझे निमित्त बनाकर दी है। अतः भगवत्प्रीत्यर्थ आवश्यकतानुसार जिस-किसीको जो कुछ दिया जाय, वह सब उसीका समझकर उसे देना ‘दान’ है।

दमः  –  इन्द्रियोंको पूरी तरह वशमें करनेका नाम ‘दम’ है। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों, अन्तःकरण और शरीरसे कोई भी प्रवृत्ति शास्त्रनिषिद्ध नहीं होनी चाहिये। शास्त्रविहित प्रवृत्ति भी अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके केवल दूसरों के हितके लिये ही होनी चाहिये। इस प्रकार की प्रवृत्ति से इन्द्रियलोलुपता, आसक्ति और पराधीनता नहीं रहती एवं शरीर और इन्द्रियों के बर्ताव शुद्ध, निर्मल होते हैं।

साधकका उद्देश्य इन्द्रियों के दमनका होने से अकर्तव्य में तो उसकी प्रवृत्ति होती ही नहीं और कर्तव्य में स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, तो उसमें स्वार्थ, अभिमान, आसक्ति, कामना आदि दोष नहीं रहते। यदि कभी किसी कार्य में स्वार्थभाव आ भी जाता है, तो वह उसका दमन करता चला जाता है, जिससे अशुद्धि मिटती जाती है और शुद्धि होती चली जाती है और आगे चलकर उसका दम अर्थात् इन्द्रिय संयम सिद्ध हो जाता है।

यज्ञः – ‘यज्ञ’ शब्दका अर्थ आहुति देना होता है। अतः अपने वर्णाश्रमके अनुसार होम, बलिवैश्वदेव आदि करना ‘यज्ञ’ है। इसके सिवाय गीताकी दृष्टिसे अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति आदिके अनुसार जिस किसी समय जो कर्तव्य प्राप्त हो जाय, उसको स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरोंके हितकी भावनासे या भगवत्प्रीत्यर्थ | करना ‘यज्ञ’ है। इसके अतिरिक्त जीविका सम्बन्धी व्यापार, खेती आदि तथा शरीर निर्वाह सम्बन्धी खाना- पीना, चलना-फिरना, सोना-जागना, देना-लेना आदि सभी क्रियाएँ भगवत्प्रीत्यर्थ करना ‘यज्ञ’ है। ऐसे ही माता-पिता, आचार्य, गुरुजन आदिकी आज्ञाका पालन करना, उनकी सेवा करना, उनको मन, वाणी, तन और धनसे सुख पहुँचाकर उनकी प्रसन्नता प्राप्त करना और गौ, ब्राह्मण, देवता, परमात्मा आदिका पूजन करना, सत्कार करना- ये सभी ‘यज्ञ’ हैं।

‘स्वाध्यायः – अपने ध्येयकी सिद्धिके लिये भगवन्नामका जप और गीता, भागवत, रामायण, महाभारत आदिके पठन-पाठनका नाम ‘स्वाध्याय’ है। वास्तवमें तो ‘स्वस्य अध्याय: ( अध्ययनम्) स्वाध्यायः’ के अनुसार अपनी वृत्तियोंका, अपनी स्थितिका ठीक तरहसे अध्ययन करना ही ‘स्वाध्याय’ है। इसमें भी साधकको न तो अपनी वृत्तियोंसे अपनी स्थितिकी कसौटी लगानी है और न वृत्तियोंके अधीन अपनी स्थिति ही माननी है। कारण कि वृत्तियाँ तो हरदम आती-जाती रहती हैं, बदलती रहती हैं। तो फिर स्वाभाविक यह प्रश्न उठता है कि क्या हम अपनी वृत्तियोंको शुद्ध न करें ? वास्तवमें तो साधकका कर्तव्य वृत्तियोंको शुद्ध करनेका ही होना चाहिये और वह शुद्धि अन्तःकरण तथा उसकी वृत्तियोंको अपना न माननेसे बहुत जल्दी हो जाती है; क्योंकि उनको अपना मानना ही मूल अशुद्धि है। साक्षात् परमात्माका अंश होनेसे अपना स्वरूपकभी अशुद्ध हुआ ही नहीं। केवल वृत्तियोंके अशुद्ध होनेसे ही उसका यथार्थ अनुभव नहीं होता।

तपः – भूख-प्यास, सरदी गरमी, वर्षा आदि सहना भी एक तप है, पर इस तपमें भूख-प्यास आदिको जानकर सहते हैं। वास्तवमें साधन करते हुए अथवा जीवन-निर्वाह करते हुए देश, काल, परिस्थिति आदिको लेकर जो कष्ट, आफत, विघ्न आदि आते हैं, उनको प्रसन्नतापूर्वक सहना ही ‘तप’ है; क्योंकि इस तपमें पहले किये गये पापोंका नाश होता है और सहनेवालेमें सहनेकी एक नयी शक्ति, एक नया बल आता है।

साधक को सावधान रहना चाहिये कि वह उस तपोबल का प्रयोग दूसरों को वरदान देने में, शाप देने या अनिष्ट करने में अपनी इच्छापूर्ति करने में न लगाये, प्रत्युत उस बल को अपने साधन में जो बाधाएँ आती हैं, उनको प्रसन्नता से सहने की शक्ति बढ़ाने में ही लगाये।

साधक जब साधन करता है, तब वह साधन में कई तरह से विघ्न मानता है। वह समझता है कि मुझे एकान्त मिले तो मैं साधन कर सकता हूँ, वायुमण्डल अच्छा हो तो साधन कर सकता हूँ इत्यादि । इन सब अनुकूलताओं की चाहना न करना अर्थात् उनके अधीन न होना भी ‘तप’ है। साधक को अपना साधन परिस्थितियों के अधीन नहीं मानना चाहिये, प्रत्युत परिस्थिति के अनुसार अपना साधन बना लेना चाहिये। साधक को अपनी चेष्टा तो एकान्त में साधन करनेकी करनी चाहिये, पर एकान्त न मिले तो मिली हुई परिस्थिति को भगवान्‌ की भेजी हुई समझकर विशेष उत्साह से प्रसन्नतापूर्वक साधन में प्रवृत्त होना चाहिये।

आर्जवम् – सरलता, सीधेपन को ‘आर्जव’ कहते हैं। यह सरलता साधक का विशेष गुण है। यदि साधक यह चाहता है कि दूसरे लोग मुझे अच्छा समझें, मेरा व्यवहार ठीक नहीं होगा तो लोग मुझे बढ़िया नहीं मानेंगे, इसलिये मुझे सरलता से रहना चाहिये, तो यह एक प्रकारका कपट ही है। इससे साधक में बनावटीपन आता है, जब कि साधक में सीधा, सरल भाव होना चाहिये। सीधा, सरल होने के कारण लोग उसको मूर्ख, बेसमझ कह सकते हैं, पर उससे साधक की कोई हानि नहीं है। अपने उद्धार के लिये तो सरलता बड़े काम की चीज है

कपट गाँठ मन में नहीं, सबसों सरल सुभाव ।

‘नारायन’ ता भक्त की, लगी किनारे नाव ॥

इस लिये साधक के शरीर, वाणी और मन के व्यवहार में कोई बनावटीपन नहीं रहना चाहिये। उसमें स्वाभाविक सीधापन हो।

आदिनाथ शास्त्री, मो. 7588094317

लेखक दर्शन शास्त्र के मर्मज्ञ हैं।

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