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आखिर क्या है रचनाशीलता का वास्तविक मर्म ?

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राजीव थेपड़ा 

After all, what is the real essence of creativity? : जब से सोचता आया हूं और लिखता आया हूं, तब से साहित्य या कोई अन्य कला या कोई भी रचनाशीलता, इसका सबसे महत्त्वपूर्ण अर्थ मेरी समझ से उसका कंटेंट रहा है और कंटेंट का अर्थ मेरी समझ से रस-रूपक-अलंकार-विन्यास-विम्ब- मुहावरे, इन सब की अपेक्षा कंटेंट की समकालीनता मेरे लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण रही है।

क्या है कि आदमी का मन और दिमाग ; दोनों बहुत-सी बातों पर विचार करते रहते हैं और सबसे ज्यादा विचार अपने सुख, अपने आनन्द, अपने परिवार, अपनी संतान, अपने बंधु बांधवों तक ही सीमित होते हैं! निश्चय ही ज्यादातर लोगों की रचनाशीलता भी इन्हीं सीमाओं तक सीमित होकर रह जाती है। ऐसी रचनाशीलता समष्टि के कोई काम नहीं आती और समष्टि के लिए वह ग्राह्य भी नहीं होती।

मेरे देखे किसी भी कला में कालजयी सिर्फ और सिर्फ वही लोग हुए हैं, जिन्होंने समस्त जगत की, अथवा किसी भी समाज की पीड़ा को व्यक्त किया है। दुनिया के अधिकतम दुर्बल और पीड़ित लोगों की पीड़ाओं को अपना स्वर दिया है। निश्चित तौर पर वे लोग न केवल बधाई या साधुवाद के पात्र हैं, बल्कि वही सच्चे अर्थों में रचनाशील कहे जाने के वास्तविक अधिकारी भी हैं ! और निस्संदेह यह मेरा अपना मत है और मेरे हिसाब से रचनाशीलता को सार्वभौमिक-सार्वकालिक ही होना चाहिए ।

बाकी सर्वसम्मत तो आज तक ना कुछ हुआ और ना कुछ होगा, क्योंकि बड़ी से बड़ी अच्छाई में भी किसी के लिए बुराई छुपी हुई है और बड़े से बड़े आनन्द में भी किसी का दुख भी निहित है, तो सर्वसम्मति के हिसाब से रचना कर्म को मैं ज्यादा प्रमुखता नहीं देता, बजाय इसके वह रचना किन पीड़ाओं को स्वर दे रही है, किन उद्दाम इच्छाओं को अभिव्यक्ति प्रदान कर रही है, यही मेरे लिए सबसे प्रमुख बात है !

इसके अलावा एक बात और है कि अतुकांत कविताओं के इस युग में रचनाशीलता और ज्यादा मुखर हुई है और ज्यादा लोगों की आवाज बनी है और ज्यादा लोगों के लिए आसान या सुगम भी बनी है। यह इस अतुकांत रचनाशीलता के युग का ही प्रभाव है! बाकी बेशक हर रचना कविता के हिसाब से बहुत प्रभावी हो, यह भी बहुत आवश्यक बिलकुल नहीं है। लेकिन, यदि उसमें ऐसा कंटेंट है, जो सबसे अधिक प्रभावशाली अथवा सामर्थ्य भरा है और अपने समाज या अपने युग के सबसे ज्यादा लोगों के लिए प्रभावी है, तो इस कंटेंट के बारे में विमर्श होना अधिक आवश्यक है, बजाय केवल कवित्त के। क्योंकि, हर तरह की रचना अपने आप में कभी एकदम निर्बल भी होती है, तो कभी बहुत ही उत्कृष्ट भी होती है। जिस प्रकार किसी कमजोर रचना में यह कोई आवश्यक नहीं कि उसका कंटेंट भी व्यर्थ ही हो, उसी प्रकार किसी बहुत अच्छी रचना का, जो अपनी कई योजनाओं के स्तर पर बहुत शानदार मानी जा सकती है, उसमें भी आवश्यक नहीं कि उसका कंटेंट उतना महत्त्वपूर्ण हो !!

आज के इस युग में हमें यह सोचना है और फिर यह साधना है कि हमें किस चीज को प्रमुखता देनी है, हमारे लिए कौन-सी चीजें अधिक आवश्यक हैं। समाज को कौन-सी बातें ज्यादा पॉजिटिव स्थिति में पहुंचा सकती हैं। किन रचनाओं का अनुसंधान समाज को उसका दाय दे पाने में समर्थ है। बाकी बहुत सारा अच्छा कुछ पहले भी लिखा जाता रहा है…आगे भी लिखा जाता रहेगा। बहुत अच्छे-अच्छे शब्दों में बहुत  अच्छी-अच्छी-सी रचनाएं लिखी जाती रहेंगी, जो बहुत लोगों को पसंद आती ही भी रहेंगी। अलबत्ता, यह जरूरी नहीं कि उसमें वैसा कंटेंट हो, जो ‘मॉस’ की वास्तविक आवश्यकताओं को पूर्ण करता ही हो! 

सुख के प्रभाव में और कल्पना से प्रेरित छंदोबद्ध रचनाएं भी बहुत सारे लोगों को आकर्षित कर सकती हैं…करती भी रही हैं। जो उन्हें करना भी चाहिए। लेकिन, केवल वे लेवल उन्हीं तक सीमित रह जाना भी तो दूसरी विधाओं के साथ नाइंसाफी ही होगी ना ? अंतत: फिर से यही कहना चाहूंगा कि रचनाशीलता वही मुखर होगी और वही प्रभावी भी होगी, जिसका कंटेंट लोगों की आत्माओं को छू जाता हो, लोगों के हृदय में एक तड़प भर जाता हो। यहां तक कि लोगों की दूरियां कम करता हो। यहां तक कि लोगों को आपस में जोड़ता भी हो ! 

यही रचनाशीलता की कसौटी है और यही रचनाशीलता का उपयुक्त परिणाम भी ! जो इस परिणाम के आसपास पहुंचेगा, वह कालजयी होगा और जो अपने सुख को उन्मुक्त स्वर देगा, जरूरी नहीं कि वह उस ऊंचाई को पा सके। फिलहाल, तो बस इतना ही…।

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