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सिद्धि विनायक की दाईं ओर वाली सूंड या बाईं ओर वाली सूंड है ज्यादा शुभ, आईए जानें इसका रहस्य 

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Siddhi Vinayak’s right side trunk or left side trunk is more auspicious, let’s know its secret, dharm, religious, Dharma-Karma, Spirituality, Astrology, jyotish Shastra, dharmik totke, dharm adhyatm : हर बार गणेश भगवान की प्रतिमा स्थापना से पूर्व यह सवाल सामने आ ही जाता है कि श्रीगणेश की मूर्ति में कौन सी सूंड होनी चाहिए। किस तरफ सूंड वाले श्री गणेश ज्यादा पूजनीय औश्र शुभ हैं? आइए जानते हैं इस बारे में। .

दाईं सूंड : गणेश जी की जिस मूर्ति में सूंड के अग्रभाव का मोड़ दाईं ओर हो, उसे दक्षिण मूर्ति अथवा दक्षिणाभिमुखी मूर्ति कहते हैं। यहां दक्षिण का अर्थ है दक्षिण दिशा या दाईं बाजू। दक्षिण दिशा यमलोक की ओर ले जाने वाली और दाईं बाजू सूर्य नाड़ी की है। जो यमलोक की दिशा का सामना कर सकता है, वह शक्तिशाली होता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जिसकी सूर्य नाड़ी ठीक होती है, वह तेजस्वी होता है। इन दोनों अर्थों से दाईं सूंड वाले गणपति को ज्यादा ‘जागृत’ माना जाता है। ऐसी मूर्ति की पूजा में कर्मकांड अंतर्गत पूजा विधि के सर्व नियमों का यथार्थ पालन करना आवश्यक है। उससे सात्विकता मैं वृद्धि होती है। इससे दक्षिण दिशा से प्रसारित होने वाली रज लहरियों से कष्ट नहीं होता।

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दक्षिणाभिमुखी की पूजा सामान्य पद्धति से नहीं होती 

दक्षिणाभिमुखी मूर्ति की पूजा सामान्य पद्धति से नहीं की जाती, क्योंकि तिर्य्‌क (रज) लहरियां दक्षिण दिशा से आती हैं। दक्षिण दिशा में यमलोक है, जहां पाप-पुण्य का हिसाब रखा जाता है। इसलिए यह बाजू अप्रिय है। यदि दक्षिण की ओर मुंह करके बैठें या सोते समय दक्षिण की ओर पैर रखें तो जैसी अनुभूति मृत्यु के पश्चात अथवा मृत्यु पूर्व जीवित अवस्था में होती है, वैसी ही स्थिति दक्षिणाभिमुखी मूर्ति की पूजा करने से होने लगती है। विधि विधान से पूजन ना होने पर यह श्री गणेश रुष्ट हो जाते हैं। 

बाईं सूंड : जिस मूर्ति में सूंड के अग्रभाव का मोड़ बाईं ओर हो, उसे वाममुखी कहा जाता है। वाम यानी बाईं ओर अथवा उत्तर दिशा। बाई ओर चंद्र नाड़ी होती है। यह शीतलता प्रदान करती है। उत्तर दिशा अध्यात्म का पूरक है,यह आनंददायक है। इसलिए पूजा में अधिकतर वाममुखी गणपति की मूर्ति ही रखी जाती है। इनकी पूजा प्रायिक पद्धति से की जाती है। इस गणेश जी को गृहस्थ जीवन के लिए ज्यादा शुभ माना गया है। इन्हें विशेष विधि विधान की जरूरत नहीं पड़ती। यह भक्तों पर शीघ्र प्रसन्न होते हैं। वह थोड़े में ही संतुष्ट हो जाते हैं। त्रुटियों पर क्षमा करते हैं। 

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