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Gorakhpur : विश्वविद्यालयों की अराजकता के लिए कुलपति कम दोषी नहीं

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विवेकानंद त्रिपाठी

Gorakhpur University, Gorakhpur news, Uttar Pradesh news : Students are not careless they are less cared. ( विद्यार्थी लापरवाह नहीं बल्कि उनकी परवाह कम की जाती है). इस सूक्ति के हवाले से विश्वविद्यालयों के हालात पर कुछ बातें साझा कर रहा हूं। ताजा प्रकरण है गोरखपुर विश्वविद्यालय में चार दिन पहले हिंसक विद्यार्थियों और कुलपति के बीच हिंसक झड़प। यह अशोभनीय है। नहीं होना चाहिए। किसी भी सभ्य समाज में हिंसा अनुचित है। पर ऐसी नौबत आई क्यों ? दरअसल किसी संस्था के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति की नीति और नियति में खोट हो कुछ राज हों, परदेदारी हो,कुछ स्याह हो तो ऐसे हालात पैदा होते हैं और एक दिन विस्फोट हो ही जाता है। विश्वविद्यालय जैसी पवित्र जगह को चलाने वाले मुखिया की नीति और नियति दोनों crystal clear यानी एकदम पारदर्शी होनी चाहिए। उनकी नजर में छात्र और उनका हित ही सर्वोपरि होना चाहिए। यह एकमेव बैरोमीटर है यूनिवर्सिटी को चलाने का। दुर्भाग्य से यह नहीं है। इसमें बहुत क्षरण हुआ है। छात्र और उनका हित प्राथमिकता में हैं ही नहीं। ये मान लिया जाता है कि स्टुडेंट हैं तो अराजक ही होंगे।

कुलपति में छात्रों का सामना करने का माद्दा नहीं

इस मेंटालिटी से विश्वविद्यालय चलाने वाले कुलपति में अपने छात्रों का सामना करने का माद्दा नहीं हो सकता। उन्हें हमेशा अपना रोब गालिब करने के लिए खाकी की सरपरस्ती चाहिए होती है। जिसे अपने ही विद्यार्थियों के बीच जाने में पुलिस की जरूरत पड़े, वह मुखिया कैसा? गोरखपुर यूनिवर्सिटी के छात्र आंदोलन की राह पर इसलिए हैं कि उनकी फीस में बेतहाशा वृद्धि कर दी गई है। लड़के लड़कियों के छात्रावासों में रोजमर्रा की आवश्यक सुविधाएं नहीं हैं। टॉयलेट तक जर्जर और गंदे हैं। ऐसे में अगर स्टूडेंट्स अपनी समस्याएं अपने कुलपति से नहीं कहेंगे तो और किससे कहेंगे। जिस कुलपति को अपने छात्रों से मिलने में तौहीन महसूस होती हो, या भय लगता हो उसे कुलपति नहीं होना चाहिए। कुलपति चाहते तो उनसे अभिभावक की तरह मिलकर उनके आक्रोश को दवानल होने से बचा सकते थे।

जरा सी बात पर ट्रिगर तबाते देर नहीं लगती थी

इसी विश्वविद्यालय के कुलपति रहे प्रोफेसर भूमित्रदेव का एक किस्सा सुनाता हूं। आधी रात को कुलपति के निवास पर दो छात्र नेताओं की दस्तक हुई। उनका रिकॉर्ड बहुत खराब था। उन्हें जरा सी बात पर ट्रिगर तबाते देर नहीं लगती थी। कुलपति के सलाहकारों ने उन्हें उनसे न मिलने की सलाह दी। मगर कुलपति ने रंचमात्र बिना सोचे बस इतना पूछा क्या वे इस यूनिवर्सिटी के बोनाफाइड छात्र हैं? यह तस्दीक होते ही तुरंत उन्होंने कहा मैं उनसे जरूर मिलूंगा। उन दोनों छात्र नेताओं का इतना आतंक था कि कुलपति आवास के किसी परिचर ने उनकी तलाशी लेने की हिम्मत नहीं की।

तलाशी का मतलब जान से हाथ धोना

उनका कहना था कि इनकी तलाशी का मतलब जान से हाथ धोना। कुलपति की सहमति मिलते ही वे बेधड़क कुलपति के कक्ष में दाखिल हुए। प्रोफेसर देव ने बड़े सम्मान के साथ उन्हें कुर्सी ऑफर की। बहुत तसल्ली से एक अभिभावक की तरह उनकी बात सुनी। वार्ता के दरम्यान एक छात्र नेता अचानक उठ खड़ा हुआ। प्रोफेसर देव ने अपनी पुस्तक ‘चैलेंजेस of यूनिवर्सिटी’ में इस घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है कि मुझे एक क्षण के लिए लगा कि अब मुझ पर गोलियां बरसने वाली हैं। मगर उस छात्र नेता ने अपने गले में पहनी मां दुर्गा की लॉकेट निकाली और कसम खाते हुए कहा कि जीवन में पहली बार कोई वीसी मिला है जिसने हमारी सुनी और हमसे बिना झिझक बात की। इतनी रात को इस धृष्टता पर आप हमे अरेस्ट भी करा सकते थे। मगर हम आपके आगे नतमस्तक होकर जा रहे हैं। कल से इस विश्वविद्यालय में वही होगा जो आप चाहेंगे।

…और सारा आक्रोश हवा हो गया

एक दृष्टांत और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वीसी प्रोफेसर एएन झा का। छात्रों ने किसी मांग को लेकर उनका घेराव किया। वे बहुत उग्र और आक्रामक हो गए थे। उस समय के एसएसपी को इसकी सूचना मिली तो विश्वविद्यालय में भारी पुलिस बल भेज दिया और खुद भी पहुंच गए। कैंपस में पुलिस बल देख प्रोफेसर झा आग बबूला हो गए। एसएसपी को बुलाकर कहा किसकी परमिशन से आपने कैंपस में पुलिस भेजी है। ये सभी छात्र हमारे अपने बच्चों की तरह हैं, इनको कोई तकलीफ होगी तो हमसे नहीं कहेंगे तो और किससे कहेंगे?मेरे कैंपस में पुलिस को बच्चों को छूने से पहले पुलिस को मेरे शव से गुजरना होगा। घेराव करने वाले छात्रों और उनके नुमाइंदा नेताओं की आंखें नम हो गई। सारा आक्रोश हवा हो गया। वे अपने कुलपति की शख्सियत के आगे नतमस्तक हो गए।

दुर्भाग्य से ऐसे बौने कुलपति आ रहे हैं जिनका अहंकार सर्वोपरि है छात्र हित नहीं

ऐसा इसलिए हो पाया की इन कुलपतियों को किसी फौज फाटे पर नहीं बल्कि खुद पर भरोसा के साथ उनकी नीति और नियति में कोई खोट नहीं थी। उनके केंद्र में छात्र हित था। स्वहित नहीं। वे जानते और समझते थे कि ” students are not careless but less cared.” उनके बीच जाकर अभिभावक की तरह उनकी सुन लेने भर से उनका सारा आक्रोश पिघल जाता है। दुर्भाग्य से ऐसे बौने कुलपति आ रहे हैं जिनका अहंकार सर्वोपरि है छात्र हित नहीं। वे विश्वविद्यालय में अपने व्यक्तित्व का नही सत्ता के गलियारों तक अपने ऊंचे रसूख का प्रदर्शन करते हैं। वे यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वे “पावरफुल” हैं “केयरफुल” नहीं। उनको छात्रों की परवाह नहीं। उनकी जवाबदेही और जिम्मेदारी यह मौका देने वाले आकाओं के प्रति होती है छात्रों के प्रति नहीं। ऐसे बौने लोगो को जबतक विश्वविद्यालयों के शीर्ष पद पर बैठाया जाता रहेगा समस्या विकराल ही होती जायेगी।

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