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नफरतों के बाज़ार में…

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डाॅ. आकांक्षा चौधरी 

इंस्टा, टिकटॉक रील के ज़माने में आंखों को सुकून की तलाश रहती है। सुकून मिलता है कहीं दूर, इंटरनेट जहां बंद हुआ करते हैं। लोगों ने समंदर में तार बिछा दिये हैं। आसमान में एंटीने टांग दिये हैं। हर तरफ़ सूराख है, किसी की ज़िन्दगी में ताका-झांकी करने के लिए। हर तरफ माल असबाब बिखरा हुआ है, ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के व्यक्तिगत मामले में बिना बोले घुसने का।

सिर्फ़ घुसने का नहीं, फिर घुसपैठिये छेड़खानी भी शुरू करते हैं। ऐसे ही तकरार का माहौल बनता है और वह नफ़रत में बदल जाता है। हमें किसी से बात करने की ज़रूरत नहीं। बस ! कमेंट्स, इमोजी जैसे बटन दबाने हैं और बनी हुई बात बिगड़ जानी है। कोई पहले जैसे मेहनत, मशक़्क़त नहीं। अब पहले जुम्मन मियां तक बात पहुंचते-पहुंचते सात दिन लगते थे कि अपने पड़ोसी रामबिलास भाई भी बाबरी मस्जिद ठनका कर आये हैं, तो क्या था कि बीच में कुछ हो ही नहीं पाता था। समय तो बड़े से बड़ा घाव भर देता है न ! अब बिलकुल अलग ज़माना आ गया है। दामू ने कुछ कहा भर कि वह बात सारे व्हाट्सएप ग्रुप में मन की गति तीव्रता से दौड़ गयी। बस ! उधर हिन्दपीढ़ी, कर्बला चौक से रॉड, ख़ंजर तन गये, ये खबर फटाफट चुटिया में फैल गयी। किसी ने फेसबुक पर फोटो डाल दिया, फौरन भगवा रंग से इंस्टाग्राम रंग गया। जिहाद, आज़ादी, देश बचाओ आन्दोलन के नारे गूंजने लगे हवाओं में ! 

बस ! नफ़रत ही नफ़रत का सैलाब बह रहा है बाज़ारों में ! समझना होगा कि बस इंटरनेट की स्पीड से मन की गति को धीमा करने की ज़रूरत है। हमने रिसर्च करके विज्ञान को बड़ा इसलिए नहीं बनाया था कि प्रेम छोटा हो जाये !

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