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घर-दुकान-ऑफिस-काम, यही है जीवन की सच्चाई

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राजीव थेपड़ा

Home-shop-office-work, this is the truth of life : दोस्तों ! इस पोस्ट में मेरी उन समस्त लोगों से कुछ शिकायतें हैं, उन ऐसे लोगों से शिकायतें हैं, जो भरपूर सुख पूर्वक जीते हुए भी और भरपूर आनन्दपूर्ण स्थितियों में जीने के बावजूद आनन्दपूर्ण ढंग से जी नहीं पाते या जीवन से संतुष्ट नहीं रह पाते। उन समस्त लोगों को इंगित मेरी यह पोस्ट है।

दोस्तों ! हम धरती पर चाहे जहां कहीं भी क्यों ना हों, हमारे जीवन में हमें अनवरत चलानेवाली प्रक्रिया हमारा काम ही है और हम चाहे जिस किसी भी व्यवस्था में क्यों न हों, समाजवादी व्यवस्था हो, चाहे पूंजीवादी व्यवस्था हो, राजसत्ता हो या लोकतंत्र हो, हर हालत में हमें अपने दैनिक जीवन यापन करने की समस्त जरूरतों के लिए धन के ऊपर निर्भर होना होता है और वह धन हमें विभिन्न प्रकारों से प्राप्त होता है। कहीं हम नौकरी करते हैं, कहीं हम अपना व्यापार करते हैं या कोई भी व्यवसाय या अपने हुनर का काम भी क्यों नहीं करते हों, मगर काम तो हमें करना ही पड़ता है। ठीक उसी तरह स्त्रियों को भी घर का काम करना पड़ता है और वह काम भी उतना ही जरूरी है, जितना धन कमाने के लिए किया जा रहा बाहर का कार्य। 

हालांकि, यह जरूरी नहीं कि स्त्रियां ही घर का काम करें, लेकिन शारीरिक और भौतिक बल के हिसाब से शुरू से ही बलवाला काम और बाहरी कामों के लिए स्त्री-पुरुषों ने मिल कर यह व्यवस्था बनायी कि पुरुष बाहर के काम करते रहें और स्त्री घर के काम करें। उसका कारण एकमात्र यह था, क्योंकि स्त्री को गर्भधारण करना पड़ता है, इसलिए उसका बहुत सारा समय अपने बच्चे को जन्म देने और फिर उसे पालने-पोसने में निकल जाता है और बच्चे को भी मां के रूप में स्त्री की आवश्यकता अनिवार्यरूपेण ही पड़ती है। मां के बगैर कोई बच्चा जी नहीं सकता या यूं कहें कि ठीक प्रकार से पल-बढ़ नहीं सकता,  इसलिए यह व्यवस्था बनायी गयी कि स्त्रियां घर के काम करें और पुरुष बाहर के काम करें और इसमें किसी भी किस्म का ऊंच या नीच का भाव नहीं था। यह एक सहज नैसर्गिक व्यवस्था थी, जिसमें किसी को बाहर का काम करते हुए कोई उच्च श्रेणी नहीं प्राप्त करनी थी और ना ही घर का काम करते हुए किसी को निम्न श्रेणी का कहना था। लेकिन, कालांतर में ऐसा भी हो गया और धीरे-धीरे यह एक किस्म का प्रोपेगंडा बन गया।

खैर…हमारी बात इस विषय पर नहीं हो रही, हमारी बात का मुख्य मुद्दा यह है कि हम अपने-अपने स्थान पर रहते हुए जीते हुए उतने आनन्दित नहीं रह पाते, जितना कि हमें रहना चाहिए, क्योंकि हम सदा दूसरों को देखते रहते हैं ! कोई कहीं गया, तो हमें लगता है वह तो चला गया, हम नहीं जा पाये ! किसी ने कोई चीज खरीदी, तो हमें लगता है उसने जो चीज़ खरीदी, काश ! यह मेरे पास भी होती ! कोई रेस्टोरेंट गया हुआ है, तो हमारा भी मन किया कि चलो…चलें। हम भी रेस्टोरेंट का खाना खाते हैं। कोई मित्र रेस्टोरेंट्स गया हुआ है। अचानक आपने उसको फोन किया, तो उसने आपको बताया कि वह रेस्टोरेंट आया हुआ है, आप भी आ जाओ और आप सेकेंड भर में तैयार हो जाते हैं !! 

दोस्तों ! न जाने क्यों, रोजमर्रा के कामों में हमें रस नहीं मिलता, क्योंकि वह रोजमर्रा का रसहीन काम होता है और हमारा मन जैसे प्रतिपल किसी रोमांच का भूखा होता है, उसे हर वक्त जैसे कुछ नया चाहिए होता है, तो हमें अपने ही घर के काम, अपने ही कार्यालय के काम, अपनी दुकान के काम बेहद बोरियत भरे महसूस होते हैं और हमें लगता है कि हमें कब उन कामों से छुटकारा मिले और मजा यह कि हम में से हर एक को दूसरे का काम अच्छा लगता है ! उसे लगता है कि उसको अपने जीवन के एंजॉय के लिए काफी समय मिल जाता है, हमें नहीं मिलता !! क्यों नहीं मिलता ??…तो इस तरह से सोचते हुए हम अपने जीवन को ख़ुद ही एक तरह के तनाव में डाल लेते हैं ! 

 …तो, दोस्तों ! इस तरह हमारा जीवन दूसरों से तुलना करते हुए बेवजह ही उन सुखों से वंचित रह जाता है, जिन सुखों को हम बड़ी आसानी से पा सकते थे ! इस प्रकार जिन पलों में हम अपने लिए सुख निर्मित कर सकते हैं, ठीक उन्हीं पलों में हम अपने लिए दुख निर्मित कर रहे होते हैं !!…और, यह बड़ी अजीब बात है, क्योंकि हम सब अपने आप को पढ़े-लिखे समझते हैं और जीवन के विषय में काफी कुछ समझदार भी, जानकार भी समझते हैं, लेकिन हम चलते हैं सदा सुख से उल्टी राह में !! यह फ़लसफ़ा मुझे अक्सर समझ नहीं आता।

दोस्तों ! जब तक सांस में सांस है, तब तक हम में से हर किसी को कोई न कोई काम करना होगा, चाहे वह घर का काम हो, चाहे कार्यालय का काम, चाहे अपने बिजनेस का काम हो, या चाहे अपने हुनर का काम हो !!जब तक हम काम करते रहेंगे और व्यस्त बने रहेंगे, तभी तक हम मस्त और बिंदास रह सकते हैं और हम तभी तक खुश रह सकते हैं, जब हम अपनी व्यस्तता को ही अपना आनन्द बना लें, अपने कामों को ही अपना मजा बना लें और हर अवश्यंभावी घटना के प्रति सहज रूप से बर्ताव करें ! लेकिन, तरह-तरह की किताबों को पढ़ते हुए जीवन का यह पाठ हमने कभी पढ़ा ही नहीं और ना ही पढ़ने के अभी भी इच्छुक लगते हैं !!

आशा है, मेरी यह बात आप सभी को समझ आ रही होगी !! आप सब का एक बहुत बड़ा शुभचिंतक-हितैषी और आप सब को प्यार करनेवाला आप सब का एक जिगरी दोस्त…’गाफिल’ ।

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