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हम गांव चले जाएंगे 

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जो शहरों में बसने की तैयारी करके आये हैं।

अम्मा – बाबूजी की तबीयत नासाज करके आये हैं।।

सोच रहे होंगे हम होशियारी करके आये हैं। वो सब अपने खेतों से गद्दारी कर के आये हैं।।

गांव से शहर में आया था कुछ अपनों के लिए।

 आंख में बस गए रंगीन सपनों के लिए।।

सुबह से चल कर शाम को यहां बस ले आई।

किसी गरीब को यहां पैसे की हवस ले आई।।

नाग फेनियों ने जैसे कमल देख लिया।

एक सुदामा की झोपड़ी ने जैसे महल देख लिया।।

ये ना सोचा की कलयुग में कहा कृष्ण मिलते हैं।

शहर के बीच में अब कमल नहीं खिलते हैं।।

शहर के लोगों का दस्तूर अलग होता है। 

इन बे सहूरो का सहूर अलग होता है।।

हीरे- मोती तो खजानों में रखे जाते हैं।

बूढ़े मां बाप दालानों में रखे जाते हैं।।

दोस्ती को यहां पैसों से तोला जाता है।

जो सबको अच्छा लगे वह झूठ बोला जाता है।।

जिंदगी दर पर सौत बन कर खड़ी है।

सारे रिश्तों से यहां भूख बड़ी है।।

वसूल चांद सितारों में नजर आते हैं।

सेठ यहां राशन के करो में नजर आते हैं।।

बुजुर्गों से कोई यहां झुक कर नहीं मिलता है।

आंधियां हैं मगर यहां कोई पत्ता नहीं हिलता है।।

शहर का आदमी तो भीड़ में भी अकेला है।

गांव का आदमी तन्हा भी हो तो मिला है।।

शहर का आदमी तन्हाइयों में जीता है।

गांव का आदमी शहनाइयों में जीता है।।

वहां तालाब किसी समुद्र से कम नहीं होता।

हमारा मुखिया किसी सिकंदर से कम नहीं होता।।

हमारी बेटी गांव भर की बेटी होती है।

भांजी गांव में सबकी चहेती होती है।।

यहां पबों में जवानी पड़ी तड़पती है।

वहां दादी की कहानी में रात कटती है।।

यह शहर है, यहां धावा नहीं देता कोई।

किसी बीमार को यहां दवा नहीं देता कोई।।

पास पैसा हो तो फिर क्या नहीं देता कोई।

मुफ्त में तो यहां दुआ नहीं देता कोई।।

यह शहर है, यहां हैवानियत टपकती है।

चार कंधों को जुटाने में पूरी उम्र कटती है।।

यहां मांगे घी दूध नहीं देता है।

दम बिन आम या अमरुद नहीं देता है।।

कहां शर्मा के अब शहरों में दुल्हन आती है।

पांव छूने में बुजुर्गों के अब शर्म आती है।।

जवान सोचते हैं चांद पर जाया जाए।

 मंगल पर आशियाना बनाया जाए l

लेकिन गांव का टूटा हुआ घर कभी नहीं बनता।

उनसे मां-बाप का छप्पर कभी नहीं बनता।।

बाद मरने के वह फोटो में लटक जाते हैं।

बूढ़ी आंखों के सारे अरमान चटक जाते हैं।।

कभी कोयल किसी के छत पर नहीं गाती है।

सबके आंगन में यहां धूप नहीं आती है।।

एक संडे के लिए यहां रिश्ते छटपटाते हैं।

बिना खुशियां दिए यहां त्योहार चले जाते हैं।।

इसी तरह शहर जो आगे बढ़ जाएगा।

केसरी खेतों का सिंदूर उजड़ जाएगा।।

जमींदारों के कलेजे को छील जाएगा।

यह अजगर एक दिन पूरे गांव को निकल जाएगा।।

गोलियां खाकर जब नींद नहीं आएगी।

चांद तो निकलेगा मगर ईद नहीं आएगी।।

रोशनी वाली चिरागों से दुआ निकलेगा।

दिलों में अपनों के नफरत का कुआं निकलेगा।।

धूप की जगह आसमान में अंधेरा होगा।

शाम पूरब से और पश्चिम से सवेरा होगा।।

संस्कारों के चितायें जलाई जाएंगी।

आग में मां और बेटियां जलाई जाएंगी।।

दो हाथ कम वह छप्पर उठाने के लिए।

बूढ़ी दादी के चश्मा बनाने के लिए।।

जवान बहन के हाथ पीला करने को।

गाय के दूध से खाली पतीला भरने को।।

समुद्र छोड़ मीठी नदी की प्यास लिए।

अपने कंधों पर उम्मीद की नई आस लिए।।

अपने बंजर पड़े खेतो से गले मिलने को।

कच्चे पगडंडियों पर नंगे पांव चलने को।।

मां के आंचल में उसी छांव चले जाएंगे।

हम शहर छोड़ अपने गांव चले जाएंगे।।

जी में आता है यह कद छोड़ के बौने हो जाएं।

किसी गरीब के बच्चों का खिलौने हो जाएं।।

आखिरी वक्त में यह फर्ज निभाया जाए।

हमको गांव के मिट्टी में जलाया जाए।।

अगर हम दुनिया में दोबारा बुलाए जाएं।

गांव की नीम के पेड़ के नीचे झूले में झुलाए जाएं।।

शहर का प्यार तमाशा की तरह होता है।

गांव का प्यार बताशे की तरह होता है।।

तन कहीं भी हो आत्मा हमारे गांव में है।

इस आसमान से बड़ी मां हमारे गांव में है।।

मां के आंचल के उसी छांव चले जाएंगे।

हम शहर छोड़ गांव चले जाएंगे।।

रचयिता: डीएन मणि।

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