– 

Bengali
 – 
bn

English
 – 
en

Gujarati
 – 
gu

Hindi
 – 
hi

Kannada
 – 
kn

Malayalam
 – 
ml

Marathi
 – 
mr

Punjabi
 – 
pa

Tamil
 – 
ta

Telugu
 – 
te

Urdu
 – 
ur

होम

वीडियो

वेब स्टोरी

जीवन भाग्य है या कर्म ; या फिर दोनों…??

9c0191a6 2311 4603 9700 660c872eef4e

Share this:

राजीव थेपड़ा 

ब्रह्मांड में अनवरत एक सधे हुए परिक्रमा पथ में लाखों-करोड़ों साल से वर्तुल कर रहे नक्षत्रों की गतियों को देखते, समझते और वर्षवार उनका अध्ययन करते हुए ही मनीषियों ने सम्भवत: यह निष्कर्ष प्रतिपादित किया होगा कि सब कुछ पूर्व निर्धारित है।…और चूंकि, सब कुछ पूर्व निर्धारित है, इसीलिए विभिन्न ग्रहों की गतियों को देखते हुए, समझते हुए, ब्रह्मांड में घटनेवाली बहुत सारी भौगोलिक व खगोलीय घटनाओं का पूर्वानुमान किया जाता रहा है। जो प्राय: अक्षरश: सत्य भी साबित हुआ है। विभिन्न खगोलीय घटनाओं को भी तिथिवार और समयवार बरसों बरस पहले ही जान लिया जाता है। जो बरसों बाद उसी प्रकार घटता दिखाई देता है, जैसा कि पहले से बताया जा चुका था।

सम्भवत: इसी आधार पर ऐसा माना जाता है कि जीवन भी एक वर्तुल है और इसमें हो रहा सब कुछ पूर्व निर्धारित है और चूंकि यह सब कुछ पूर्व निर्धारित है, तो इसका एक अर्थ यह भी मान लिया गया कि निश्चित ही वह पूर्व निर्धारण रैंडमली तो नहीं हुआ होगा ; बल्कि कर्म आधारित हुआ होगा। अथवा किसी न किसी नियम आधारित तो हुआ ही होगा, क्योंकि ब्रह्मांड में घट रहा कुछ भी नियम से परे नहीं है। अनुशासन से भी परे नहीं है। इस नियम और अनुशासन में रत्ती भर का भी यदि अंतर आ जाये, तो हमारी आंखों के सामने दिख रहा यह सब कुछ उस रत्ती भर के चलते ही असंतुलित हो जायेगा। यहां तक कि यह पृथ्वी भी बचे कि ना बचे, इसका भी पता नहीं ! क्योंकि, रैंडमली कोई भी चीज अगर मान ली जाये, तो उसे लॉजिकली कहीं भी फिट नहीं किया जा सकता। जबकि, हर एक गति एक निर्धारित क्रम में चल रही है, इसीलिए जीवन का निर्धारण भी किसी भी नियम से एक क्रम में ही होना चाहिए और यह क्रम “कर्म” समझा और जाना गया। 

सम्भवत: इसीलिए भाग्यवाद का प्रतिपादन हुआ। भाग्यवाद का प्रतिपादन करने का यह अर्थ नहीं है कि कोई भी चीज भाग्य भरोसे कह दी जाये, बल्कि कर्म का सिद्धांत तो अपनी जगह है ही है। इस निष्पत्ति के अनुसार जो कर्म हम करके आये हैं, उसका परिणाम हम अभी भोग रहे हैं और जो कर्म अभी करेंगे, उसका परिणाम बाद में भोगेंगे। इसकी निश्चित कालगणना का कोई निर्धारण नहीं है। वह व्यक्ति के व्यक्ति (पर्सन टू पर्सन) पर निर्भर करता है।

इन्हीं सब निष्पत्तियों के आधार पर सम्भवत: कारण कार्य का नियम एवं अंततः पाप और पुण्य का सिद्धांत भी निर्धारित हुआ होगा, क्योंकि यह भी तय है कि अच्छे कर्मों का नतीजा अगर अच्छा नहीं निकलेगा, तो फिर कर्म का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा। गलत कार्य का दंड और अच्छे कार्य का पुरस्कार, यह सिद्धांत जीवन के लिए बहुत न केवल आवश्यक है, अपितु अनिवार्य भी। जैसे सूर्य उगेगा तो दिन ही होगा और डूबेगा, तो रात ही होगी। उसी प्रकार जैसे कर्म हम करेंगे, वैसे फलों की प्राप्ति अवश्यम्भावी है। जीवन बेशक पूर्व निर्धारित हो, किन्तु इस जीवन में हमें जीवनोपयोगी कार्य करने ही होंगे ; अन्यथा जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि जैसे कार्य हम करेंगे, वैसा फल मिलेगा।

अब इसके पीछे ऐसे भी तर्क लगाये जाते हैं कि किसी वेश्या के गर्भ में पल रहा जो भ्रूण है, वह उसके किन कर्मों का परिणाम है? बिलकुल नवजात बच्चा नानाविध व्याधियों से ग्रस्त है, तो यह उसका कौन-सा कर्म फल है? तो यह अपने-अपने मानने और नहीं मानने की बात है। कर्मफल होगा, तभी तो ऐसा हुआ होगा ! यही तो हमारे समझने की बात है कि जो प्रश्न हम उपस्थित कर रहे हैं, यदि उसी प्रश्न को उल्टा करके खड़ा करें, तो हमें शायद यह भान हो कि कोई कर्मफल होगा तभी तो ऐसा हो रहा है ! वरना ऐसा एक मासूम के साथ भला क्यों होता? रोज अकाल मौतें होती हैं और रोज सैकड़ों साल लोग भी जीते हैं। एक ही मां के गर्भ से पैदा कई संतानें अलग-अलग प्रकार का जीवन जीती हैं। यानी उनमें से कोई बुरी तरह असफल भी हो सकता है और कोई जबरदस्त रूप से सफल भी ! कोई पागल भी हो सकता है, कोई चोर या डकैत भी और कोई महापुरुष भी, तो कोई संत भी ! अब आप देखिए ना ! हैं तो सब एक ही मां की संतानें ना ? …तो फिर ऐसा कैसे हुआ कि एक ही तरह का लालन पोषण होते हुए यह सभी लोग अलग-अलग दिशाओं की ओर प्रवृत्त हुए ? क्या यह पूर्व निर्धारित नहीं था? क्या यह उनके पूर्व कर्मों का फल नहीं था ?

यद्यपि, हर विषय में विवाद के पर्याप्त संदर्भ होते हैं, लेकिन यदि किसी बात को विवाद ही बने रहने देने में किसी को अच्छा लगे, तो उसका कोई अर्थ नहीं है। अपितु उसी बात को यदि संवाद की तरह देखा जाये, तो हम एक बेहतर निष्कर्ष की निष्पत्ति कर सकते हैं और यह देखना-समझना आवश्यक होगा कि जीवन को हम किस तरह से देखते हैं। शेष जीवन इस तरह से भी देखा जाना है और उस तरह से भी देखा जाना है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी देखा जाना है। संत की दृष्टि से भी देखा जाना है।…तो, एक ज्योतिषीय दृष्टि भी हो सकती है, क्योंकि सभी दृष्टियों का भी अपना-अपना अलग-अलग आधार है। लेकिन, जीवन का निर्धारण कोई नहीं कर सकता। इस बाबत कोई भी अपनी निष्पत्ति स्वतंत्र रूप से निर्धारित नहीं कर सकता। जीवन का यह अबूझपन भी सम्भवत: जीवन का एक हिस्सा हो और यह भी एक पूर्व निर्धारित ईश्वरीय परिकल्पना ! ऐसा होना भी तो सम्भव है ना ?…है ना ??

Share this:




Related Updates


Latest Updates