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आओ…और अच्छाई के विजेता बन जाओ….!!!

आओ…और अच्छाई के विजेता बन जाओ….!!!

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राजीव थेपड़ा 

Come…and become the conqueror of goodness…!!! : दोस्तों किसी भी बुराई की जड़ यही होती है कि बुरा करनेवाले अच्छाई पर हावी हो जाते हैं। यहां तक कि अच्छा चाहनेवाला, अच्छा करनेवाला व्यक्ति अपने ही अधिकारों/संसाधनों से स्वतः हट जाता है, यानी बुरे व्यक्ति के लिए स्वयमेव ही रास्ता साफ़ कर देता है। इसी प्रकार बहुत सारे बीते हुए आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में मैं यही कहना चाहूंगा कि अब यदि आप सचमुच अपने आसपास अच्छाई चाहते हो, तो पहला, ना सिर्फ आप स्वयं अच्छाई का रास्ता छोड़़ो, अपितु किसी भी बुरे व्यक्ति को खुद पर हावी मत होने दो और दूसरा, आप सभी अच्छे लोग आपस में मिलना शुरू करो और अपना एक घोषित नहीं, तो कम से कम एक म्युचुवल संगठन बनाओ, जिसमें एक-दूसरे की अच्छाई को बढ़ावा देने की मौखिक सहमति हो। 

होता यह है कि बुरे लोग भी ना केवल दूसरों का अहित करते हैं, बल्कि अन्य लोगों को भी ऐसा ही करने के लिए उकसाते हैं, प्रेरित करते हैं और इस प्रकार येन-केन-प्रकारेण भांति-भांति के संगठन भी बना लेते हैं, जहां उनकी और उन जैसे लोगों की तूती बोलती है। इसके ठीक विपरीत, अच्छा चाहनेवाले लोग स्वयं में अच्छे होते हुए भी आपस में छिटके हुए होने के कारण सब कुछ झेलने को अभिशप्त हो जाते हैं।…और, बहुधा इस विषय पर यही पाया जाता है कि इसके पीछे न जाने हमारे भीतर का कौन-सा अहंकार जगा हुआ रहता है, जिसके कारण हम अच्छी-अच्छी बातें करते हुए समाज का भला चाहने अपनी समस्त सोच के बावजूद केवल आपस में सामंजस्य न होने के कारण वास्तव में धरातल पर उन संगठनों को खड़ा करने में समर्थ नहीं हो पाते हैं, जहां समाज की वास्तविक तौर पर भलाई हो पाये अथवा हम यदि ऐसा करने में समर्थ भी होते हैं, तो थोड़े ही समय में वह संस्थान हमारे ही बीच के किन्हीं लोगों के न्यस्त स्वार्थ और अहंकार के कारण टूट जाते हैं ! 

इस प्रकार हर व्यक्ति अपने अहंकार जनित स्वार्थ के कारण अपना एक अलग ही झंडा लेकर चलने को उत्सुक होता है और इस प्रकार संगठन पर संगठन, संस्थान पर संस्थान खुलते चले जाते हैं, पनपते चले जाते हैं, किन्तु समाज का वास्तविक तौर पर कुछ भी भला नहीं होता, क्योंकि उन संस्थाओं के पीछे व्यक्तियों के न्यस्त स्वार्थ होते हैं। …तो, जब तक हमारे ये समस्त अहंकार जनित स्वार्थ हमसे इसी प्रकार कार्य कराते रहेंगे, तब तक हमारे भीतर छुपे हुए सामाजिक विचार या समाज के प्रति कुछ अच्छा करने का विचार केवल और केवल कल्पना बन कर रह जायेंगे ! क्योंकि, सामाजिक रूप से कुछ भी करने के लिए बहुत जगह पर झुकना पड़ता है और बहुत बार बहुत जगह पर चार कदम पीछे हट कर दो कदम आगे भी बढ़ना पड़ता है। लेकिन, जहां जब कभी कहीं पीछे हटने की बात उठती है, तो वहीं पर हमारे अंदर का कोई नाग अपना फन उठा कर खड़ा हो जाता है कि हमको तो किसी कीमत पर पीछे नहीं हटना !! 

इस प्रकार आवश्यकता होने के बावजूद केवल हमारी जिद के चलते बहुत सारे बहुत ही अनिवार्य कार्य सम्पन्न नहीं हो पाते, जिन्हें करने के लिए हमने ये संस्थान बनाये थे या जिन्हें करने की बातें हम अलग-अलग मंचों से किया करते हैं !!…तो, इस समाज के प्रति कुछ भी अच्छा करने की हमारी जो चाहना है, वह सबसे पहले तो हमारे खुद के अहंकार रहित होने की मांग करती है। लेकिन, होता इसका ठीक उल्टा है।…तो, अहंकार और सामाजिकता अथवा अहंकार और समष्टिगतता एक साथ कभी नहीं चल सकते !! 

किसी भी व्यक्ति को समाज के भीतर सामाजिक होकर जीना ही पड़ता है और जिस प्रकार व्यक्ति को अपना परिवार चलाने के लिए समय-समय पर परिवार के सदस्यों की कुछ एक उचित-अनुचित मांगों के समक्ष झुकना पड़ता है, ठीक वैसे ही स्थितियां संस्थाओं के साथ भी कभी-कभार आती हैं और उस समय व्यक्तियों को, उन समूहों को कहीं ना कहीं व्यक्तिगत अहंकार का त्याग करना ही पड़ता है और यदि ऐसा नहीं होता, तो फिर कुछ भी अच्छा नहीं हो सकता ! 

इसलिए वास्तव में यदि हम कुछ अच्छा करना चाहते हैं, तो इसकी सबसे पूर्व और आधारभूत शर्त यही है कि हम अपने आप को अहंकार रहित बनायें और सामाजिक हितों के लिए अपने समस्त सभी उल्टे-पुल्टे स्वार्थों का त्याग भी करें। जिस दिन भी हम ऐसा करने में समर्थ हो जाते हैं, उस दिन से सही मायनों में कहा जाये, तो संस्थाओं की भी आवश्यकता नहीं होती ! समाज के व्यक्ति जब कम से कम समाजोपयोगी कार्यों के लिए अहंकार रहित हो जाते हैं, तो बहुत सारे वे कार्य अपने आप सम्पन्न हो जाते हैं। क्योंकि, जिन समस्याओं के कारण वे उत्पन्न हुए हैं, वे अहंकार जनित समस्याएं ही थीं और जब अहंकार ही ना बचा, तो समस्याएं भी स्वत: समाप्त हो जाती हैं। इसलिए इस दिशा में प्रत्येक व्यक्ति सोचे, तभी वास्तविक रूप में कुछ अच्छा, कुछ सामाजिक, कुछ सकारात्मक हो सकता है। 

…और हां, इसी के लिए मानव-जीवन में आध्यात्मिकता का समावेश अत्यन्त आवश्यक है!…तो, जिस किसी भी मनुष्य में आध्यात्मिकता सच्चे अर्थों में समाहित हो गयी, उस मनुष्य में अहंकार का विकास ही नहीं हो पाता और वे बातें उससे स्वतः होने लगती है, जिसके लिए एक समाज, एक संस्थान प्रयास करता हुआ दिखाई देता है । किन्तु उसे कर नहीं पाता। इसलिए इस दिशा में सम्यक रूपेण हम कुछ सोचें। मुझे आशा है कि मनुष्य में इतनी शक्ति है कि वह अपने आप को देख सके। अपने आप का सुधार कर सके और उन रास्तों पर चल सके, जिन पर चल कर मनुष्यता को नये आयाम मिलते हैं। मनुष्यता नयी ऊंचाइयों की ओर अग्रसर होती है और मनुष्यता, मनुष्य पर गर्वित होती है। इसलिए दोस्तों…अभी-की अभी इस बुराई से निजात पाओ….और अच्छाई के विजेता बन जाओ….!!!

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